Book Title: Jain Katha Sagar Part 1
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 124
________________ हिंसा का रुख अर्थात् आत्मकथा की पूर्णाहुति ११३ रानी को इस उत्तम गर्भ के प्रभाव से तनिक भी पीड़ा नहीं हुई और उसने शुभ मुहूर्त में हम दोनों को पुत्र-पुत्री के रूप में जन्म दिया । ___पुत्र-जन्म की बधाई मिलते ही राजा ने मुक्त हाथों से दान दिया, जिसके फल स्वरूप जीवन भर के निर्धन महान् धनी हो गये और धन के कारण उनकी सूरत वदल जाने से उनके निकट सम्यन्धी भी उन्हें पहचान नहीं सके । सम्पूर्ण नगर में सर्वत्र हर्ष व्याप्त हो गया । इस पुत्र-पुत्री के गर्भ में आने से रानी की सर्वत्र 'अभयदान' देने की भावना जाग्रत हुई थी। अतः राजा ने मैं जो पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ था उसका नाम 'अभयरुचि' रखा और पूर्व भव की जो मेरी माता यहाँ पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई थी उसका नाम 'अभयमती' रखा। राजन मारिदत्त! पुत्रको 'पिता पिता' और वधू को 'माता माता' कह कर एक हाथ से दूसरे हाथ में खिलाते हुए हम बड़े हुए। फिर कलाचार्य से कला सीखी और हम युवा हुए। ___ मेरा रूप देखकर नगर-जन कहते कि मानो यह सुरेन्द्रदत्त यशोधर राजा प्रतीत होता है और अभयमती को देखकर वे कहते कि राजमाता चन्द्रमती की मृत्यु हुए अनेक वर्ष हुए हैं परन्तु मानो साक्षात् वही हो ऐसी यह राजकुमारी प्रतीत होती है। राजा गुणधर को मेरे प्रति अगाध राग था, अतः वह तो मुझे लघु वय में ही राज्य प्रदान करने के लिए तरसता था, परन्तु जयावली ने 'पुत्र पर अभी से क्या उत्तरदायित्व JESH प्रवास यशोधर अपने ही पुत्र के पुत्र स्वरूप जन्मा! यशोधरा पोत्र की पुत्री के रूप में जन्मी! पिता पुत्र बना. वादी पुत्री बनी. कैसी संसार की विचित्रता है?

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