Book Title: Jain Katha Sagar Part 1
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 138
________________ हिंसा का रुख अर्थात् आत्मकथा की पूर्णाहुति १२७ ___अमात्य ने कहा, 'राजकुमारी! तनिक अपना हृदय सुदृढ़ करो । मैं जो कहता हूँ उसे सावधानी पूर्वक सुनो | आज जव शोभायात्रा चल रही थी तव राजकुमार ने एक साधु को देखा और देखते ही उन्हें जातिस्मरणज्ञान हो गया। वे योले, 'आज से नौवें भव में मैं सुरेन्द्रदत्त (यशोधर) राजा था । मेरी माता चन्द्रमती (यशोधरा) थी। मेरी रानी नयनावली थी। उस समय मुझे एक वार अशुभ स्वप्न आया।' यह बात सुनते ही राजकुमारी का मस्तिष्क घूमने लगा। अमात्य बोले, 'राजकुमारी! घबराती क्यों हो? आप तनिक स्वस्थ बनें।' मन को स्वस्थ करके राजकुमारी ने कहा, 'मंत्री! संसार विचित्र है। यह कथा राजकुमार की अकेले की नहीं है | मेरी भी यही कथा है । चन्द्रमती, यशोधरा मैं स्वयं ही हूँ। पूर्व भव में इन राजकुमार की मैं माता थी। सीधे-सादे राजकुमार को मैंने जीवहिंसा के मार्ग पर हठ करके प्रेरित किया, जिसके फलस्वरूप वे और मैं दोनों नौ भवों से संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं। __ यह कहते-कहते विनयमती के नेत्रों में आँसू आ गये । वृद्ध अमात्य ने कहा, 'राजकुमारी! जातिस्मरणज्ञान से राजकुमार का चित्त संसार के प्रति उदासीन हो गया है। वे विवाह करना नहीं चाहते। वे दीक्षा ग्रहण करने की हठ कर रहे हैं। अब इस विवाहोत्सव का क्या किया जाये? आप ही हमारा मार्ग-दर्शन करें।' विनयमती ने कहा, 'अमात्य प्रवर! वे विवाह कैसे करें? जिन्होंने स्वयं अपने नेत्रों से संसार का भयानक चित्र देखा है, वे जान-वुझकर पाप में क्यों गिरें? वे पलभर का भी विलम्व सहन क्यों करें? वे सहर्ष प्रव्रज्या ग्रहण करें, मेरी सम्मति है और मैं भी प्रव्रज्या ग्रहण करूँगी। हमारे विवाह-मण्डप को दीक्षा-मण्डप बनने दो।' (१०) विनयंधर नृप ने राजकुमार यशोधर को दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति प्रदान कर दी। उस निमित्त उसने मुक्त हाथों से दान दिया, समस्त चैत्यों में पूजा का आयोजन किया गया और स्वयं भी कनिष्ट पुत्र यशोवर्धन को राज्य-सिंहासन पर बिठा कर दीक्षा प्रहण करने के लिए तत्पर हुआ। विवाहोत्सव से गूंजने वाली अयोध्या नगरी तुरन्त दीक्षोत्सव से गूंजने लगी। मोह एवं विषय-वासना का उत्सव वैराग्य के उत्सव में परिवर्तित हो गया। विवाह के हाथी के स्थान पर पालखी आई। नर्तकियों के नृत्य के स्थान पर वैराग्योत्तेजक जिनेश्वर भगवान के भक्ति के नृत्य हुए । सुहागिन नारियों के संसारोत्तेजक गीतों के बजाय दीक्षा के महत्त्व एवं कठिनता सूचक मंगल गीत गाये जाने लगे। आमोद-प्रमोद में प्रमुदित स्वजन-वृन्द गम्भीरता पूर्वक वैराग्य मार्ग के अनुमोदन में प्रमुदित होने लगे। नगर

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