Book Title: Jain Katha Sagar Part 1
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 116
________________ तुम्हारा धर्म अर्थात् काल-दण्ड (३९) तुम्हारा धर्म अर्थात् काल-दण्ड सातवाँ भव (१) ह राजन् मारिदत्त! कर्म राजा ने हमें इतनी विडम्यनाएँ दी फिर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ। हमने पूर्व भव में एक आटे के मुर्गे का वध किया था इसलिए मोर, कुत्ता आदि के भव धारण करने पर भी मुर्गे का भव पाने का समय आया । इस मुर्गे के भव में मेरे साथ जो बीती उसे आप सुनो। जिस उज्जयिनी में मैं राजा था वहाँ समीप ही एक चाण्डालों की वस्ती थी। उस वस्ती में झोंपड़ीनुमा अनेक घर थे। उनके आंगनों में पशु-पक्षियों की हड्डियों और खून से परिपूर्ण खड्डे थे। उस वस्ती में रहने वाले मनुष्यों में से अधिकतर मनुष्य लंगोटी लगाये हुए नंगी देह वाले थे और उनके सिर के बाल और नाखून प्राकृतिक रूपसे ही बढ़े हुए थे । वस्ती में चारो ओर धुए के वादल से चलते थे और सर्वत्र भयानक दुर्गन्ध आती थी। __ मेष के भव में से मेरा जीव और भैंसे के भव में से मेरी माता का जीव च्यव कर मुर्गी की कुक्षि में अवतीर्ण हुआ। मुर्गी एक घूरे में अनेक लघु जीवों को खाकर अपना और हमारा पोषण करती थी। मुर्गी गर्भवती थी, उस समय एक नर विल्ली उसके पीछे पड़ी। भय के कारण मुर्गी दौड़ी और उसने घूरे में दो अण्ड़े दे दिये। मुर्गी को तो उस नर विल्ली ने झपट कर मार दिया, परन्तु हमारे ऊपर तुरन्त एक चाण्डालिनी ने घर का कूडा-कर्कट डाल दिया। उस घूरे में गर्भाशय में जीव रुंधे उस प्रकार हम रुंध गये और समय पूर्ण होने पर अण्डे फूटे, जिनमें से हम दोनों पक्षियों के रूप में प्रकट हुए। हम दोनों का रंग अत्यन्त धेत था । हमारा स्वर भी अत्यन्त तीक्ष्ण फिर भी अत्यन्त मधुर था, जिसके कारण उस वस्ती में रहने वाले अणुहल्ल नामक चाण्डाल-पुत्र को हम अत्यन्त प्रिय लगे। अतः उसने हमें ले लिया और प्रेम पूर्वक हमारा पालन-पोषण करके हमें वडा किया। इस अणुहल्ल का स्वामी कालदण्ड नामक कोतवाल था। उसे पक्षी पालने तथा

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