Book Title: Jain Katha Sagar Part 1
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 105
________________ ९४ सचित्र जैन कथासागर भाग करके सिंहासन पर बैठ कर पान-सुपारी खाने लगा तब मेरी देह टूटने लगी, नेत्र जलने लगे, नसें खिंचने लगी, जीभ छोटी होने लगी, कानों के पर्दे तड़-तड़ की ध्वनि करते हुए टूटने लगे, दाँत गिरने लगे और नाक के नथूने फूल कर धम्मण की तरह आवाज करने लगे। मैं सिंहासन पर से लुढ़क गया । मैं बोलना चाहता था फिर भी जीभ छोटी पड़ जाने के कारण कुछ भी बोल नहीं सका । मेरा चतुर प्रतिहारी समझ गया कि किसी ने राजा को भोजन में विष दे दिया है। वह रोते हुए बोला, 'मंत्रियो ! वैद्यों एवं तान्त्रिकों को बुलाओ और राजा को चढ़ा हुआ विष उतारो, विलम्व मत करो।' ये शब्द सुनते ही रानी नयनावली चौंकी । उसके मन में विचार आया कि तान्त्रिकों एवं वैद्यों ने विष उतार दिया तो मेरी दुर्गति होगी और सारी योजना विफल हो जायेगी ! नाक-कान काट कर मुझे गधे पर बिठाकर सारे नगर में घुमाया जायेगा और इस प्रकार अन्त में मैं दुर्दशा में मरूंगी। अतः रानी छाती पीटती हुई कदम-कदम पर पछाड़ें खाती हुई 'हे नाथ! यह क्या हो गया ? मेरे मन के मनोरथ मन में ही रह गये, कौन शत्रु उत्पन्न हुआ कि सबका कल्याण करने वाले मेरे स्वामी की उसने यह दशा की ? बाल विखेर कर, वस्त्रों को मार्ग में डालती हुई जहाँ मैं पीड़ा के कारण तड़पता हुआ पड़ा था वहाँ आई और सिसक-सिसक कर रुदन करने लगी, 'हे प्राणनाथ! कह कर मेरे गले से लिपट गई। उसने अपने केश-कलाप मेरे मुँह पर ऐसे डाल दिये कि उनके भीतर क्या हो रहा है यह कोई जान न सके। वह 'हे स्वामी! अब मेरा कौन सहारा होगा? आप GROVER CONCEALERT TREATING ALuFritt @fruri damuntre for en tote - अधर्मिणी, दुराचारिणी कुलटा रानी ने दीक्षा लेने चले अपने पति को विषाक्त भोजन से मृतप्रायः कर लोगो के समक्ष नाटक करना भी नहीं भूली! अहो! संसार की विचित्रता!

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