Book Title: Jain Katha Sagar Part 1
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 85
________________ ७४ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ जिससे वे फाँसी खाने लगी। उन्हें ऐसा करते पड़ोस में रहने वाली सुरसुन्दरी ने देख लिया जिससे उसने उन्हें आत्महत्या करने से रोका । तत्पश्चात् साध्वीजी भी शान्त हुए और आत्महत्या के प्रयत्न के लिए उन्हें भी अत्यन्त दुःख हुआ। समय व्यतीत होते यह बात भूला दी गई। तिलकमंजरी एवं रूपमती के सम्बन्ध में तनिक अन्तर पड़ गया परन्तु कुछ समय के पश्चात् उनका फिर वही सम्बन्ध हो गया। एक बार विराट-राज शूरसेन की ओर से तिलकमंजरी के सम्बन्ध का प्रस्ताव आया। राजा ने उत्तर में कहा, 'शूरसेन के साथ तिलकमंजरी का विवाह करने में मुझे तनिक भी आपत्ति नहीं है, परन्तु मेरी पुत्री तथा मंत्री की पुत्री दोनों एक ही व्यक्ति के साथ विवाह करना चाहती हैं । अतः मंत्री-पुत्री रूपमती की इच्छा जानने के पश्चात् ही निश्चय किया जा सकता है। राजा ने रूपमती की इच्छा ज्ञात कर ली और तत्पश्चात् उन दोनों का विवाह विराट के राजा शूरसेन के साथ सम्पन्न हो गया। दोनों सखियों ने एक ही पति के साथ विवाह किया और वे साथ-साथ सुख का उपभोग करने लगी। इन दोनों का सखियों के रूप में सम्बन्ध जन्म से था परन्तु सौतन होने पर वह सम्बन्ध नहीं रहा। अब वे एक दूसरी के छिद्र देखने लगीं और तुच्छ कारण से भी नित्य परस्पर झगड़ने लगीं। शौक्य थी शूली रुडी कही, नहीं इहां मीन ने मेष रे। बिहु जो बहन सगी हुवे, तो ही पण वहे द्वेष रे।। एक वार तिलकपुरी के राजा को किसी ने एक सुन्दर कावर उपहार स्वरूप भेजी। यह काबर राजा ने तिलकमंजरी को भेज दी। वह उसे नित्य खिलाती और उसके साथ वह मधुरस्वर में बातें करती। वह इस कावर के साथ रूपमती को बात तक करने नहीं देती थी । अतः उसने अपने पिता के पास उसके समान कावर मँगवाई परन्तु उसे काबर नहीं मिलने के कारण उसने कोशी नामक एक पक्षी भेजा। तिलकमंजरी कावर को खिलाती और रूपमती कोशी को खिलाती। दोनों ने उन्हें पालने वाले मनुष्य भी भिन्न भिन्न नियुक्त किये थे। एक कहे मारी कावर रुडी, एक कहे मुझ कोशी रे। जिम एक ग्राहके आवे विलगे, पाडोसी बिहु डोशी रे।। एक बार इन दोनों रानियों में विवाद छिड़ गया। तिलकमंजरी कहने लगी कि मेरी काबर अच्छी है और रूपमती कहने लगी कि मेरी कोशी अच्छी है । दोनों ने पक्षियों से मधुर बुलवाने की शर्त लगाई। काबर ने अनेक मधुर शब्द बोले परन्तु कोशी एक शब्द भी बोल नहीं सकी। तिलकमंजरी ने स्वपमती को चिढ़ाया : ‘देख तेरी कोशी? मेरी कावर के हजार

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