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सचित्र जैन कथासागर भाग - २ अपेक्षा उन्होंने अंगुली देखी तो अंगूठी रहित अंगुली अन्य अन्य अंगुलियों की अपेक्षा अटपटी प्रतीत हुई। भरतेश्वर ने एक एक करके समस्त आभूषण उतार दिये और अपने अंगों को निहारा तो घड़ी भर पूर्व जो सिर का मुकुट देख कर इन्द्र की तुलना करने की इच्छा हुई थी वह सिर देख कर उन्हें वे सर्वथा शोभा रहित प्रतीत हुए। वाजु वंध(भुजवन्ध), हार एवं मुकुट उतारने पर अपनी देह दुर्गच्छनीय प्रतीत हुई। चमड़ी की ओर भरतेश्वर ने दृष्टि डाली तो उन्हें ज्ञात हुआ कि उनका यौवन कृत्रिम था। यह चमड़ी तो मेरी वृद्धावस्था व्यक्त करती है और उसमें क्या है वह अब गुप्त नहीं है।
आभूषणों के द्वारा देह कव तक सुशोभित रहेगी? जब तक आभूषण हैं तब तक; उनके उतरते ही देह शोभा-विहीन हो जायेगी। उसी प्रकार से आत्मा के निकल जाने पर यह तथाकथित भरत कितने समय तक? उसे राज्यमहल में भी कोई नहीं रखेगा। उससे दुर्गन्ध निकलेगी। ये रानियाँ, यह वैभव और चक्रवर्ती की समस्त ऋद्धि क्या मेरी है? नहीं, यह आत्मा जाने पर वे सब अलग हो जायेंगे। मेरे चौदह रत्न और छियाणवे करोड़ गाँवों का आधिपत्य मुझे पुनः जाप्रत नहीं कर सकेंगे। मैं जहाँ जाऊँगा वहाँ ये साथ भी नहीं आयेंगे। मेरे साथ आयेगा कौन? आत्मा द्वारा की गई शुभ-अशुभ करनी। मेरी करनी तो विश्व-विख्यात है कि मैंने अपने भाइयों का राज्य छीन लिया है। छः खण्ड़ो पर विजय प्राप्त करने में मैंने कोई कम पाप एकत्रित नहीं किये । मेरे पिताश्रीने केवलज्ञान और मोक्ष का मार्ग खोला और मैंने सचमुच अपने लिये पाप का मार्ग खोला । भाइयों ने कल्याण किया, बहनों ने मुक्ति प्राप्त की, पुत्रों ने राज्यों का परित्याग किया: मैं इनमें लिपटा रहा । अंगूठी जाने से अंगुली अटपटी है उसी प्रकार
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भरतेधर आत्म-रमण की विचारधारा में गहरे-गहरे डूबते रहे और
आरीसा भवन में ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया.