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आरसा भवन में केवलज्ञान अर्थात् चक्रवर्ती भरत
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भाइयों की भी प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की। प्रासाद के बाहर भरतेश्वर ने नित्राणवे बन्धु मुनियों का यशसमूह हो वैसे निन्नाणवे स्तूपों का भी निर्माण कराया ।
भरत चक्रवर्ती वुद्धिमान थे । वे अच्छी तरह जानते थे कि अब पतन का समय आ रहा है । रत्नों से ललचाकर कहीं कोई आशातना न कर ले और प्रत्येक के लिए यह स्थान सुगम न बने, अतः दण्ड- रत्न के द्वारा उस पर्वत के आठ पादचिह्नों के अतिरिक्त समस्त मार्ग समतल कर दिया । इन आठ पादचिह्नों से यह पर्वत अष्टापद के नाम से विख्यात हुआ ।
भरत चक्रवर्ती प्रासाद का निर्माण और उसकी प्रतिष्ठा करने के पश्चात् बोझिल हृदय से अयोध्या में आये ।
पिता और भाइयों के निर्वाण के पश्चात् चक्रवर्ती भरत को चैन नहीं मिला । उन्हें अपनी ऋद्धि, स्मृद्धि तथा वैभव निरर्थक प्रतीत हुआ। वे अपने नित्राणवे भाइयों को धन्य मानने लगे और स्वयं को पामर मानने लगे ।
मंत्रियों ने भरतेश्वर को निवेदन किया, 'महाराज! आप किस लिए शोक कर रहे हैं? भगवान और आपके भ्रातागण ने जगत् में उत्कृष्ट से उत्कृष्ट स्थान प्राप्त किया है । आप चाहे जितना राज्य के ऊपर से मन अलग करें परन्तु यह राज्यधुरा सम्हालने जैसा इस समय कोई नहीं है, क्योंकि आपके भाइयों और राज्यधुरा सम्हाल सकने वाले सवने दीक्षा अङ्गीकार कर ली है। राजकुमार आदित्ययशा अभी तक बालक है । आप चित्त में से उद्विग्नता निकाल दें और राज्य कार्य में चित्त लगायें ।
भरतेश्वर ने शनैः शनैः शोक कम किया और वे निस्पृह भाव से राज्य कार्य की देख-भाल करने लगे ।
(१२)
प्रातःकाल का समय था । मन्द मन्द वायु से भरतेश्वर के राज-प्रासाद के तोरण मधुर संगीत का सृजन कर रहे थे । भरतेश्वर स्नान करके देह पर सुगन्धित द्रव्य लगा कर दुकूलों एवं रत्न-हीरों से जड़ित होकर अपना रूप निहारने के लिए आरीसा भुवन में गये ।
सिर के बालों पर हाथ फिराते हुए आरीसा भुवन में अपना रूप निहारते हुए भरतेश्वर बोले, ' आयु यढ़ गई है फिर भी देह का दिखावा तो इन्द्र जैसा ही है। देह का तेज तो अच्छे अच्छों को चकाचौंध करे ऐसा है और ओज सबको चकित कर दे ऐसा है ।' मुस्कराते हुए चक्रवर्ती ने परस्पर कंधों पर हाथ फिरा कर देह के समस्त अंग देखना प्रारम्भ किया । इतने में अचानक वृद्ध पति के हाथों से युवा पत्नि खिसक जाये उसी प्रकार रत्न जड़ित अंगूठी अंगुली में से निकल पड़ी। भरतेश्वर अंगूठी को देखे उसकी