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सचित्र जैन कथासागर भाग
(२६)
संसार का मेला अर्थात्
चन्दन
मलयागिरि
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(१)
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मध्य रात्रि का समय था । सर्वत्र शान्ति थी । उस समय पलंग पर सोये हुए कुसुमपुर के राजा चन्दन ने सुना, 'राजा! तेरी दुर्दशा होगी, यदि तुझे जीवित रहना हो तो शीघ्र चला जा ।' राजा ने एक वार दो बार ये शब्द सुने । उसने इधर-उधर देखा परन्तु कोई दृष्टिगोचर नहीं हुआ । राजा खड़ा हुआ तो रूप की अम्बार तुल्य एक देवी दृष्टिगोचर हुई और 'मैं तेरी कुल देवी हूँ' - यह कह कर वह अदृश्य हो गई। प्रातःकाल हुआ । राजा ने रानी मलयागिरि को बुलाकर शान्त चित्त से कहा, 'देवी! रात्रि में कुलदेवी ने समाचार कहे हैं कि 'तुझ पर भारी विपत्ति आने वाली है ।' विपत्ति हमें घेरे और हम अचेत बने रहें उसकी अपेक्षा हम स्वयं जाकर विपत्ति को गले क्यों न लगायें?' रानी राजा की बात से सहमत हो गई और सायर एवं नीर दोनों पुत्रों को साथ लेकर राजा-रानी ने प्रयाण किया ।
(२)
राजा चन्दन, रानी मलयागिरि, तथा राजकुमार सायर एवं नीर यह समस्त राजपरिवार घूमता- घूमता कुशस्थल नगर में पहुँचा । उनके सबके पाँव नग्न थे, देह पर खरोंचें लगी हुई थीं । घूमते-घूमते चन्दन ने कुशस्थल में एक सेठ के घर पुजारी की नौकरी ढूंढ निकाली और मलयागिरि ने लकड़ियों का गट्ठर बाँधकर बेचने का कार्य प्रारम्भ किया ।
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उन्होंने कुशस्थल के बाहर एक झौंपड़ी ( कुटिया) बनाई । चन्दन नौकरी का कार्य समाप्त होने पर रात्रि में झौंपडी पर आता और मलयागिरि भी लकडियाँ बेच कर जो प्राप्त होता उससे दो कुमारों का पोषण करती। रात को चारों एकत्रित होते और प्रातः अपने-अपने कार्य पर चले जाते ।
सन्ध्या का समय था । एक परदेशी व्यापारी चौक में बैठा हुआ था । इतने में मलयागिरि की ' लकड़ी लो, लकड़ी लो' आवाज उसके कानों में पड़ी। घंटियों की रणकार सदृश आवाजं सुन कर उस व्यापारी ने उस ओर अपना मुँह फिराया तो एक सुन्दर रूपवती स्त्री को लकड़ियाँ बेचते हुए देखा। व्यापारी ने उस स्त्री को बुला कर कहा,