Book Title: Jain Katha Sagar Part 1
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 27
________________ १६ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ पश्चाताप का शमन नहीं हुआ। उसमें पुत्र की प्रबल लालसा जाग्रत हुई। उसे पुत्र के लालन-पालन से रहित जीवन निरर्थक प्रतीत हुआ । श्री कृष्ण ने हरिणगमेषी देव की आराधन की। देव ने उन्हें वरदान दिया और इस कारण देवकी ने जिस पुत्र को जन्म दिया उसका नाम पड़ा गजसुकुमाल । (४) देवकी ने गजसुकुमाल का मन भरकर लालन-पालन किया । वह उसे पल भर के लिए भी दूर नहीं करती थी । उसके लिए तो यह प्रथम और अन्तिम रत्न था । पक्षिणी बच्चों को चाहे जैसे लपेटती है, परन्तु पंख आते ही पक्षी थोड़े ही घोंसले में पड़े रहते गजसुकुमाल युवा हुआ। उसने दो कुमारियों के साथ विवाह किया-एक द्रुम राजा की पुत्री प्रभावती के साथ और दूसरा सोमशर्मा ब्राह्मण की पुत्री सोमा के साथ । दोनों पत्नियों का प्यार माता का दुलार एवं श्री कृष्ण की ममता होने पर भी गजसुकुमाल का चित्त वैराग्य एवं संयम की ओर जाने के लिए तरसता था। उसने अपना स्थान तो अपने छः ज्येष्ठ भ्राताओं के स्थान में ही निश्चित कर रखा था। एक बार श्री नेमिनाथ भगवान सहसानवन में आये। गजसुकुमाल ने भगवान की देशना सुनी - दिये देशना प्रभु नेमिजी रे, आ छ असार संसार । एक घड़ी में उठ चले रे, कोई नहीं राखण हार ।। विध विध करीने हुं कहुंरे, सांभलो सहु नरनार । अन्ते कोई केहगें नहीं रे, आखर धर्म आधार ।। देशना सुनकर गजसुकुमाल का वैराग्य-अंकुर पल्लवित हो गया। उसने देवकी माता एवं श्रीकृष्ण से अनुमति माँगी । आँख से पल भर के लिए भी दूर नहीं रखे गए गजसुकुमाल को दीक्षा की अनुमति प्रदान करने में देवकी को अत्यन्त कठिनाई प्रतीत हुई, परन्तु उसके दृढ़ निश्चय के सामने देवकी को झुकना पड़ा। गजसुकुमाल दीक्षित हो गया और उसने भगवान के चरण-कमलों का आश्रय स्वीकार किया। आज्ञा आपो जो नेमिजी रे लाल, काउसग करूँ स्मशान रे। मन थिर राखीश महारूँ रे लाल, पामुं पद निर्वाण रे।। आज्ञा आपी नेमिजी रे लाल, आव्या जिहां स्मशान रे। मन थिर राखी आपणुं रे लाल, धरवा लाग्या ध्यान रे।।

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