Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 6
________________ जैनहितैषी [भाग १३ रूपसे घटका नाम है । इसकी द्रव्य मृत्तिका है। ही समयमें घटके निजरूपकी सत्ता और उसके 'इसका क्षेत्र वह स्थान है जहाँ वह धरा है और पर रूपकी असत्ता प्रधान करनेसे वह अवक्तव्य इसका काल वह समय है जिसमें वह वर्तमान हो जाता है। ऐसी वस्तु जो एक ही समयमें है। इन चीजोंके देखते घट है। 'शायद ' इस अपने निजरूप और पररूपकी प्रधानता रखती लिए कहा कि कोई यह न समझे कि घटमें केवल है वह सिवा अवक्तव्यके और क्या हो सकती है ? ये ही चीजें हैं जो प्रधानतासे बताई हैं और कुछ ५-शायद घट है और अवक्तव्य भी है। नहीं है । यह अनेकान्तार्थवाचक है । इस द्रव्यरूपसे तो घट है, लेकिन उसका द्रव्य वाक्यमें सत्ता प्रधान है। और पर्यायरूप एक कालमें ही प्रधानभूत ___ २-शायद घट नहीं है । इसका यह अर्थ है नहीं है । सत्तासाहत अंवक्तव्यताकी प्रधाकि घट परनाम, पररूप, परद्रव्य, परक्षेत्र (स्थापना) नता है। घटके द्रव्य अर्थात् मृत्तिका रूपको और परकाल ( भाव ) में नहीं है । अपना रूप देखें तो घट है, परन्तु द्रव्य (मृतिका ) और तो टेढ़ी गर्दन थी, लेकिन इस रूपसे अलग जो उसके परिवर्तनशील रूप दोनोंको एक समयमें रूप हैं जैसे चपटा लंबा आदि, वह इसमें नहीं है! ही देखें तो वह अवक्तव्य है। जैसे पट वृक्षादिका रूप । अपनी द्रव्यता ६-शायद घट नहीं है और अवक्तव्य भी मृत्तिका है, लेकिन परद्रव्य सुवर्ण लोहा है। घट अपने पर्यायरूपकी अपेक्षासे नहीं है, पत्थर सूत, ये नहीं हैं । अपना क्षेत्र तो क्योंकि वे रूप क्षणक्षणमें बदलते रहते हैं, लेकिन वह स्थान था जहाँ वह रक्खा था यानी पटा या प्रधानभूत द्रव्य पर्याय उभयकी अपेक्षासे वह पत्थर, दूसरा स्थान पृथिवी छत आदि । अपना अवक्तव्यत्वका आधार है। इसमें असत्तारहित काल तो वर्तमान था दूसरा काल भूत या भवि- अवक्तव्यत्वकी प्रधानता है। ष्यत् काल है। इसमें अमत्ता प्रधान है । परन्तु ७-शायद घट है, नहीं भी है और अवक्तव्य कोई यह न समझे कि इसमें घटका निषेध भी है । द्रव्य पर्याय अलग अलगकी अपेक्षासे है । नहीं कहनसे घटका अस्तित्व बिल- सत्ता असत्ता सहित मिलित तथा साथ ही योजत कुल चला नहीं गया, बाल्क गौण हो गया द्रव्य पर्यायकी अपेक्षासें अवक्तव्यत्वका आश्रय और परस्वरूपकी प्रधानता हो गई। यह वाक्य घट है । मृत्तिकाकी दृष्टि से 'है,' उसके क्षणक्षणमें पहले वाक्यका निषेधरूपसे विरुद्ध नहीं है, रूप बदलते हैं इस पर्यायदृष्टि से 'नहीं' है । इन बल्कि असत्ता इसमें प्रधान है और सत्ता गौण। दोनोंको एक साथ देखो तो 'अवक्तव्य' है। ३-शायद घट है और नहीं भी है। पहले इस सबका अभिप्राय यह है कि जब किसी घटके निजरूपकी सत्ता प्रधान होनेसे उसका हो- वस्तुका निर्णय करना है तो उसे केवल एक ना बताया है और फिर घटके परस्वरूपकी दृष्टिसे ही देखकर व्यवस्था नहीं देनी चाहिए । असत्ता प्रधान होनेसे उसका नहीं होना बताया प्रत्येक वस्तुमें अनेक धर्म होते हैं । इन सभी है। जब घटके निजरूपकी तरफ देखो तो वह धर्मोको देखना चाहिए । जैनशास्त्रका मत है कि है और उसके पररूपकी तरफ देखो तो प्रत्येक वस्तु सात दृष्टियोंसे देखी जा सकती है। नहीं है। ___इनमें से हरएक दृष्टि सत्य है; परन्तु पूरा ४-शायद घट अवक्तव्य है । अर्थात् ऐसा है ज्ञान तभी हो सकता है जब ये सातों दृष्टियाँ जिसके विषयमें कुछ कह नहीं सकते हैं । एक मिलाई जायँ । इस प्रकार किसी वस्तुके विषयमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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