Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 04 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 5
________________ शान्ति वैभव | १९५ आगे बढ़ता चला जाता है । वह जानता है कि मार्गमें अनेक विघ्न आया ही करते हैं उनसे घबराना नहीं चाहिए । कठिन समय में साहस और धैर्य होना चाहिए । उसको मालूम है कि मुझे सिर्फ कुछ करना ही नहीं है किन्तु जो कुछ करना है वह यथाशक्ति अच्छा करना है । सम्भव है कि किसी कारणसे उसे अपने मार्गसे कुछ इधर उधर हटना पड़े, परंतु वह शीघ्र उसी जगह पर वापिस आजाता है। यह नहीं कि जिधर हवा ले गई उधर चले गये । कब वह अपने नियत स्थान पर पहुँचेगा, कैसे पहुँचेगा, अथवा कब उसे अपने उद्देश्य में सफलता होगी, इन बातोंकी वह परवा नहीं करता, वह अपना कार्य किये जाता है । यदि सब कुछ करने पर भी उसे सफलता नहीं होती तो वह निराश नहीं होता, अधीर नहीं होता । शान्त मनुष्य अपने कार्यको ऐसी धीरता से करता रहता है कि किसीको मालूम भी नहीं होता कि उसका भविष्य क्या होगा और अंतमें उसके कार्यका क्या परिणाम होगा । मनुष्यको सदा नये नये मौके और नई नई बुद्धि मिलती रहती है । मनुष्यका कर्तव्य है कि उनको यथाशक्ति अच्छे काम में लगावे । शान्ति मनुष्य की भीतरी गति है । उसका सम्बंध हृदयसे है; हृदयमें शांति होना चाहिए । बाहर की चुपचापको शांति नहीं कह सकते । जब भीतर शांति प्राप्त हो जाती है तब बाहर चाहे जो भी हुआ करे; बाहरकी गड़बड़से भीतरी शांति तक कुछ आँच नहीं पहुँचती । जिस तरह हवा और आँधीका असर केवल समुद्रकी सतह पर ही रहता है; अधिकसे अधिक २००, ३०० फीट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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