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प्राक्कथन
प्रस्तुत पुस्तक "जैन-हिन्दू एक सामाजिक दृष्टिकोण" के समर्थन में एक स्पष्ट एवं संक्षिप्त परिचयात्मक प्रयास है। . वस्तुतः जैन व वैष्णव भारतीय समाज के अभिन्न अंग हैं, चाहे देश-काल प्रादि की अपेक्षा से इनमें भेद प्रतीत होता हो, किन्तु मौलिक दृष्टि से निष्कर्षतः इनमें एकरूपता अधिक है। भेद का क्षेत्र सीमित है, जबकि अभेद एवं एकरूपता की परिधि बड़ी व्यापक और विस्तृत है। इसी परिपेक्ष्य में समन्वय के आधारभूत कारणों को जैन और हिन्दू इन दोनों ही परस्पर भिन्न शब्दों की सार्थक एकात्मकता की खोज के सन्दर्भ में मैंने "जैनहिन्दू एक सामाजिक दृष्टिकोण" की व्याख्या की आवश्यकता अनुभव की । एक अन्य कारण यह भी रहा कि आज जैन स्वयं को हिन्दू नहीं मानता और वैदिक धर्मावलम्बी भी यह स्वीकार नहीं करना चाहता कि जैन हिन्दू हैं, जबकि ऐसी धारणा कुछ नासमझ लोगों की ही कही जा सकती है। फिर भी यह एक ज्वलन्त प्रश्न था मेरे सामने कि क्या दोनों ही सम्प्रदाय वस्तुतः एक नहीं हैं और यह पुस्तक इसी संदर्भ-शोध-क्रम का परिणाम
वैसे भारतीय संस्कृति एक होते हए भी तीन धाराओं में प्रवाहित हुई है, जिसे जैन, वैदिक और वौद्ध धारा कहा