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( १७७ ) फिर 'हिन्दू' किसी जाति या धर्म का वाचक कभी नहीं रहा । संस्कृति के समग्र भौगोलिक परिवेश में सम्बोधन का पर्याय 'हिन्दू' को किसी भी विशिष्ठ साम्प्रदायिकता से सम्बद्ध करना नितांत दुराग्रहयुक्त और द्वषपूर्ण तथा भ्रामक है.।
भारत संस्कृति के धार्मिक एवम् सामाजिक परिप्रेक्ष्य के समस्त आयांम समन्वय की अपनी मूल व्यवस्था को प्रत्येक . काल-क्रम में समान रूप से प्रभावित करते हैं। कहीं भी किसी तरह के मूल विभेद की बात हमें नहीं मिलती। फिर जैन हिन्दू हैं । भौगोलिक सन्दर्भो के अतिरिक्त अन्य अपने 'रूढ़िगत व्यवहार पक्षों में इस बात को निर्विवाद स्वीकार किया जा सकता है।
समस्त पुस्तक में मैंने इसी समन्वय की केन्द्रीय भावना को ध्यान में रखते हुये विद्वानों के समक्ष अपने इस प्रयास को प्रस्तुत करते हुए उनसे समस्त सहयोग को तथा उनकी प्रतिक्रियाओं को अपेक्षा करता हूँ।