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(६६ ) उसका प्राचीन धर्म से नाता टूटा न था । फर्क सिर्फ इतना ही है कि हिन्दू धर्म के कुछ सिद्धान्त, जैसे कि ईश्वर को जगत का निर्माण करने वाला मानना, वेदों को सर्वश्रेष्ठ समझना और यज्ञ तथा पशु बलि में विश्वास रखना, आदि का जैन मत ने समर्थन नहीं किया और ब्राह्मणों की प्रधानता मानने से इन्कार कर दिया। परन्तु इस मतभेद के अतिरिक्त दोनों मतों में बहुत समानता है। दोनों कम, पुनर्जन्म तथा मोक्ष के सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं।'
'जैन हिन्दू कैसे ? प्राचीन वैदिक काल से ही जैनियों के पितरों की परम्परागत पितृभू भारत भूमि ही है तथा उनके तीर्थकर आदि धर्म गुल्यों ने उनके जैन धर्म की स्थापना इसी भारत भूमि में की होने से यह भारत भूमि उनकी पुण्यभू भी है । इस अर्थ में तथा केवल इसी अर्थ में हमारे बहुसंख्यक जैन वन्धु स्वेच्छा से स्वतः को हिन्दू मानेंगे। क्योंकि यह ऐतिहासिक सत्य है एवं उनमें से जिन लोगों का ऐसा विश्वास है कि उनका धर्म वैदिक धर्म की शाखा न होकर पूर्णतः स्वतन्त्र या अवैदिक धर्म है, उनकी इस धारणा को भी प्रस्तुत परिभाषा से तनिक भी ठेस नहीं पहुंचती । जिस काल में हिन्दू अर्थात् वैदिक, ऐसा हिन्दू शब्द का भ्रान्तिपूर्ण अर्थ माना जाता था, तव भी ऐसे स्वतन्त्र धर्ममतवादी जैनियों को उस विशिष्ट अर्थ में स्वयं को हिन्दू कहलाने में विपमना का अनुभव होना स्वाभाविक ही था।
हिन्दू समाज में व्यवहार के विषय में युछेक नियम स्वीकार किये जाते रहे हैं । उदाहरण के रूप में नित्य स्नान करना, पूजा,
. १-हिन्दुत्व के पंचप्राणः विनायक दामोदर सावरकर-पृ० २०