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भी विशेष महत्व है।
राजा समुद्रविजय के पुत्र भगवान् अरिष्टनेमि थे और समुद्रविजय के लघु भ्राता वासुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण थे। जैन श्रागमों में इन दोनों के घनिष्ठ सम्बन्ध के अनेकों उल्लेख प्राप्त
श्री देवेन्द्र मुनि के अनुसार भगवान् अरिष्ठनेमि और कर्म- योगी श्रीकृष्ण ये दोनों ही भारतीय संस्कृति के जाज्वल्यमान सितारे हैं। दोनों संस्कृति के सजग प्रहरी ही नहीं अपितु संस्कृति और सभ्यता के निर्माता हैं । जैन संस्कृति में जिस प्रकार भगवान् अरिष्ठनेमि की गौरव गाथायें मुक्त कण्ठ से गायी गयी हैं, उसी प्रकार स्नेह की स्याही से डुवो कर श्रीकृष्ण के अनलोद्धत व्यक्तित्व को भी उदंकित किया गया है। अन्तकृतदशांग समवायांग, णायाश्रम्मकहानो, स्थानांग, निरियापलिका, प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययन आदि में उनके 'श्री कृष्ण' महान व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं । वे अनेक गुण सम्पन्न और सदाचारनिष्ठ थे। अत्यन्त प्रोजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी और यशस्वी महापुरुप थे। उन्हें मोघवली, अतिवली, महावली, अप्रतिहत और अपराजित कहा गया है। उनके शरीर में अपार वल था। वे महारत्न बज्र को भी चुटकी में पीस डालते थे। वसुदेव हिण्डी, देवकी लम्बक, चउपन्न महापुरिय चरियं, भवभावना, कण्हचरित, हरिवंश पुराण, उत्तर-पुराण, विपण्ठिशलाका पुरुष चरित्र, त्रिपष्ठि शलाका पंचाशिका, विपष्ठिशलाका पुरुप विचार, शत्रजय माहात्म, प्रादि ग्रन्यों में हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, कन्नड़
१-अमर चन्द नाहटा : भगवान् अरिष्ठनेमि और कर्मयोगी
कृष्ण : एक अनुशीलन भूमि