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जैनदर्शनसार: प्रथमोऽध्यायः
।। मङ्गलम् ।। श्रीमंतं सन्मति सिद्ध नत्त्वा सद्गतिवायकम् । जैनदर्शनसाराख्यं निबंधमभिदध्महे ।।
__ ग्रन्थ-संगतिः आत्मनः परमहितप्रतिपादन जैनदर्शनस्य प्रयोजन । तस्य । परमहितं तु मोक्षः। स एव परमपुरुषार्थः । मोक्षस्तु आत्यंतिका व्यावाधसुखस्वरूपः । स तु न केवलाज्ञानानापि ज्ञाननिरपेक्षाचारित्रान्नापि एतद्द्वयानपेक्षाद् दर्शनादपि तु समुदितैरेभिः
हिन्दी अनुवाद जो श्री लक्ष्मी अनन्त चतुष्टय ( ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य) रूप अन्तरंग लक्ष्मी तथा समवसरणादि रूप बाह्य लक्ष्मी से संयुक्त हैं, जो सिद्धावस्था या स्वात्मोपलब्धि को प्राप्त हो चुके हैं। जो श्रेष्ठ ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान तथा सद्गति अर्थात मोक्ष प्रदान करने वाले है । ऐसे महावीर भगवान को नमस्कार करके जैनदर्शनसार नामक निबन्ध को कहता है।
जैन दर्शन का प्रयोजन आत्मा के परसहित का प्रतिपादन करना है । प्रात्मा का परमहित मोक्ष-निर्वारण है। वह ही परम पुरुषार्थ है । मोक्ष परमोत्कृष्ट निराबाध सुखस्वरूप है। वह मोक्ष न तो केवलज्ञान से, न ज्ञान रहित चारित्र से और न ज्ञान व चारित्र-रहित दर्शन से भी प्राप्त होता है, वह तो सम्यवस्व विशिष्ट इन तीनों के समुदाय से प्राप्त होता है। तत्त्वार्था