________________
एतेन वैयधिकरण्यमपि निरस्तं सत्वासत्त्वयोरेकाधिकरण“तया प्रतीतिसिद्धत्वात् । अनवस्थादोषोऽपि नानेकान्तवादिनां सभवति । अनन्तधर्मात्मकवस्तुनः स्वयं प्रमाणप्रतिपन्नत्वेनाम्युपगमात् नाप्रामाणिकपदार्थपरम्परापरिकल्पनारूपमनवस्था'नम् । एतेन संकरव्यतीकरावपि प्रत्युक्ती, प्रतीतिसिंद्ध वस्तुनि कस्यापि दोपस्याभावात् । दोपा हि प्रतीत्यसिद्धपदार्थगोचरा भवन्ति । प्रतीतिसिद्ध संशयाऽप्रतिपत्यभावानामप्यवकाशो नास्तीति पूर्वोक्ताष्टदोषसंभावनालेशोऽपि न विद्यते ।
इमामनेकान्तप्रक्रियां प्रवादिनोऽपि स्वीकुर्वन्त्येव । यद्यपि
इस पूर्व कथन से वैयधिकरण्य दोष का भी-खंडन हो गया, क्योंकि एक अधिकरण मे ही अपेक्षा भेद से सस्व तथा असत्त्व की स्थिति प्रतीति का विषय है।
और जो अनवस्था नामका दोष बताया था वह भी अनेकान्तवादियों के प्रवेश नहीं पाता; क्योंकि वे स्वयं वस्तु को परस्पर विरोधी अनेक धर्म स्वरूप प्रमाण से सिद्ध स्वीकार करते हैंअतः अप्रमारपीक अनेक पदार्थों की परंपरा की कल्पना का यहां सर्वथा अभाव ही है। __ इसी पूर्वोक्त कथन से संकर तथा व्यतिकर दोनों दोष भी खंडित हो गए; क्योंकि पदार्थ अनुभव सिद्ध होने पर किसी भी दोष को अवकाश नहीं मिलता। जन पदार्थ की सिद्धि अनुभव से विरुद्ध होती है तभी दोषो का संचार होता है। संशय,अप्रतिपत्ति तथा अभाव दोपों का भी प्रतीति-सिद्ध पदार्थों मे संचार नहीं होता। इस तरह अनेकान्त में आठों दोषों की लेशमात्र भी संभावना नहीं है।
इस अनेकान्त प्रक्रिया को अन्यमत वाले भी स्वीकार करते