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( १२८ ) द्यपेक्षया कथञ्चित्प्रतीयमानयो सत्त्वासत्त्वयोः को विरोध । न हि स्वरूपादिना वस्तुनः सत्त्वे तदैव पररूपादिभिरसत्त्वस्यानपलंभोऽस्ति, द्वयोनिधिमुपलंभात् । .
विरोधो हि त्रिधा व्यवतिष्ठते-एको बध्यघातकभावलक्षणो यथा अहिनकुलयोर्जलानलयोर्वा । द्वितीय सहानवस्थानरूपो यथा एकस्मिन्नाम्रफले श्यामतापीततयो । अनयो सहावस्थानासभवात् । तृतीय. प्रतिबध्यप्रतिवन्धक भावात्मा यथा सति मणिरूपप्रतिबन्धके वह्निना दाहो न जायते इति मरिणदाहयो' प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावाख्यो विरोधः । त्रिविधोऽप्येष विरोधोऽस्तित्वनास्तित्वयोर्वस्तुनि सर्वक्षनुभूयमानयोन प्रतीतिगोचरो भवति । है क्योंकि विरोध का साधक प्रभाव होता है । वस्तु में स्वरूप पररूप आदि की अपेक्षा से कहे जाने वाले और दिखाई पड़ने वाले सत्त्व और असत्व का विरोध है ही कहा । स्वरूपादि की अपेक्षा से वस्तु का सत्त्व होने पर भी उसी समय पररूप आदि से असत्त्व की अप्राप्ति नही है। स्वरूपादि से सत्त्व की तरह पररूपादि से असत्त्व भी अनुभव सिद्ध है।
विरोध तीन तरह से हुआ करता है। पहला वृध्यघातकभाव लक्षणवाला है अर्थात् एक के वध्य और दूसरे के घातक होने से होता है जैसे कि सांप-नकुल का तथा अग्नि और जल का होता है। दूसरा विरोध एक साथ स्थिति न होने रूप होता है जैसे कि आम के फल मे श्यामता और पीलेपन का-यह दोनों एक साथ नहीं रह सकते । तीसरा विरोध प्रतिबध्य-प्रतिबन्धक भाव रूप होता है- जैसे कि प्रतिबन्धक चन्द्रकान्तमरिण के रहते हुये अग्नि से जलाने रूप क्रिया नहीं होती। इसलिए मणि, तथा दाह में प्रतिबध्य प्रतिबन्धक भाव नामक विरोध है । स्वरूप से वस्तु के अस्तित्व काल में भी पररूपादि से नास्तित्व की प्रतीति भी सदा प्रतीति सिद्ध होने से अनेकान्त में यह तीनो ही प्रकार का विरोध नहीं पाता।