Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Chainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
Publisher: B L Nyayatirth

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Page 211
________________ ( १६२ ) त्वाच्च । अंत ह्य पादानोपादेयभावस्य प्रयोजकन्वर्वानि ।। पदार्थस्य निमित्तकारणादीनि हि तद्व्यतिरिक्तनोमागमद्रव्यनिक्षेपः । यथा राजदेहादयो राजेति । अनेन हि न केवलं राजशरीरमपिनु राजमाता राजपिता तम्यान्यान्यपरिकरादीन्यपि राजा प्रोक्तुं शक्यते । अत्र हि इदमबंधेयं यच्छुद्धपदार्थानां नक्षेपो न भवति यथा मुक्तात्मनामिति । एवमेव 'नित्यपदार्थेपु नोनागमद्रव्यनिक्षेपस्य भाविनामा-भेदो न घटते । तेषामुपादेयत्वाभावान्न च तत्रोपादनस्यावश्यकता। ननु स्थापनानिक्षेपाद् द्रव्यतिक्षेपस्य को भेद इति चेदयं भेदः स्थापना हि भिन्नयोर्भवति । द्रव्यनिक्षेपश्चाभिन्नयोरिति । ननु कारण है। यहां उपादान उपादेय भाव का ही प्रयोजन है। पदार्थ के जो निमित्त कारए होते हैं वह तद्-व्यतिरिक्त नो-पागम द्रव्य-निक्षेप है, जैसे राजा के शरीर वगैरह को राजा कहना। इस निक्षेप के द्वारा न केवल राजा का शरीर ही अपितु राजा की 'माता, राजा का पिता और उसके अन्य कुटुम्बी भी राजा के नाम से कहे जा सकते हैं। निश्चय से यहा इतना और समझ लेना चाहिए कि जो भीमद्ध पदार्थ हैं उनका तव्यतिरिक्त निक्षेप नहीं होता जैसे कि मुक्त आत्मानों का । इमी तरह नित्य पदार्थों में नोमागम द्रव्य निक्षेप का जो भावि नामा भेद है वह घटित नहीं होता। उनमे अब उपादेयस्य नहीं है तो वहा उपादान की आवश्यकता ही क्या है। स्थापना-निक्षेप से द्रव्य-निक्षेप का क्या भेद है-ऐसा प्रश्न होने पर उनर है कि स्थापना 'भिन्न पदार्थों में होती है तो द्रव्य-निक्षेप अभिश पदार्थों में । यदि इस आधार पर इस युनिस

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