Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Chainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
Publisher: B L Nyayatirth

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Page 204
________________ ( १५५ मैदाः ( क्रियाशब्दा: ) प्रादयश्चोपसर्गशब्दा: एवमादयश्च निपाता ix एतषु चतुविधेषु शब्देषु निक्षेपक्रियया केवल नामशब्दानां तारा भवति । अन्येषां शब्दानां पदार्थाऽवाचकत्वान्न तत्र ' निक्षेपस्य विधान सभवेत् । तथा चोक्त-निक्षेपविधिना नामशब्दार्थ. प्रस्तूयते । नामशब्दानां न्यूनान्यूनं चत्वारोऽर्थाः अवश्यमेव भवन्तीति निक्षेपविधिना ज्ञायते । कोशात्रोषामितरेध्या भवन्तु मा वा भवन्तु, किन्तु चत्वारोऽर्थास्तु भवन्त्येव । अप्रस्तुतार्थमपाक प्रस्तुतार्थ च व्याक निक्षेपः फलवान् । यथा-राजा तु मम हृदये वर्तत इत्यत्र राजज्ञान हृदये वर्तते न उपसर्ग शब्द है । एवं वगैरह निपात-शब्द है। इन चार प्रकार के शन्दों मे निक्षेप क्रिया रूप से सिर्फ नामशब्दों का ही प्रयोग होता है । अन्य शब्द के जितने भी प्रकार हैं वे पदार्थ के वाचक न होने से उनमें निक्षेप का विधान नहीं होता। ऐसा ही कहा है-निक्षेप विधि से नाम शब्दों का ही प्रयोग होता है । नाम शब्दों के कम से कम चार अर्थ जरूर होते हैं- ऐसा निक्षेप विधि के द्वारा ही जाना जाता है। उनके • और दूसरे अर्थ कोश से हों या न हो लेकिन चार अर्थ तो होते ही हैं । निक्षेप के मानवे का यही फल है कि वह अप्रयोजनभूत अर्थ को हटाकर प्रयोजनभूत पदार्थ का व्याख्यान करता है। "जैमे कि-राजा तो मेरे हृदय में मौजूद है-यहां राजा का ज्ञान हृदय में है न कि खुद राजा, क्योंकि राजा तो हृदय में रह नही, . केचिजातिशब्द क्रियाशब्दगुणशब्दयहच्छाशब्दभेदेन शब्दानां चातषिध्य प्रतिपादयन्ति । अपरे चैतेषु द्रव्यशब्दसमावेशेन पञ्चविधत्वमपि शब्दाना ज्याहरन्ति । वैशेपिकास्तु एतेषु सम्बन्यिशब्दानभावशम्दाच समावेश्य सप्तविधत्वं समर्थयन्ति शब्दाना । केचिद् विद्वांस प्रकृतिप्रत्ययनिपातोपसगभेदेनाऽपि चतुष्टयत्वं वदन्ति ।

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