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कथं तस्य निर्दोषत्वमिति चेत् युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वादिति । तदपि तदभिमतस्य मुक्तिसंसारकारणस्याऽनेकांतात्मकतत्त्वस्य च प्रमाणाबाधितत्वात् सुव्यवस्थितमेव ।
प्रमाणविशेषपरोक्षस्वरूपम् अविशदप्रतिभासं परोक्षं। तत् पचविध-स्मृतिः, प्रत्यभिज्ञानं, तौनुमानमागमश्चेति । पंचविधमप्येतत् ज्ञानान्तरसापेक्षत्वेनवोत्पद्यते । स्मृतेः पूर्वानुभवापेक्षा, प्रत्यभिज्ञानस्य स्मृत्यनुभवापेक्षा, तर्कस्यैतत्त्रयापेक्षा । अनुमानस्य लिंगप्रत्यक्षाद्यपेक्षा । आगमस्य च शब्दश्रवणाद्यपेक्षेति पंचस्वपि परोक्षप्रमाणेषु ज्ञानान्तरापेक्षा । प्रत्यक्षे तु न तथा, स्वातत्र्येरणव तस्योत्पत्तेः ।
क्योंकि उनकी वाणी यूक्ति और शास्त्र से विरोध रहित है। उनकी वाणी की अविरोधित्ता भी उनके माने हुये मुक्ति, संसार
और अनेकान्त स्वरूप तत्त्व के प्रमाणो से बाधित न होने से सिद्ध ही है ।
प्रमारण के भेद परोक्ष का स्वरूप
जो ज्ञान निर्मल नही होता वह परोक्ष है। वह पांच प्रकार का है- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । पाँच प्रकार का यह परोक्ष दूसरे ज्ञानों की अपेक्षा से ही उत्पन्न होता है । स्मृति को पूर्व अनुभव की अपेक्षा है, या प्रत्यभिज्ञान को स्मृति और अनुभव की अपेक्षा है, तर्क को स्मृति, अनुभव और प्रत्यभिज्ञान तीनो की अपेक्षा है। अनुमान को हेतु, प्रत्यक्ष वगैरह की अपेक्षा है और आगम को शब्द वगैरह सुनने की अपेक्षा है। इस तरह पांचों ही परोक्ष प्रमारणों मे ज्ञानान्तर की अपेक्षा है जबकि प्रत्यक्ष में वैमा नहीं है। उसकी उत्पत्ति तो स्वतन्त्र रूप से होती है।