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. ( ११६ ) वैधय॑मस्त्येव, अभिधेयत्वाभावाधिकरणे गगनकुसुमादी प्रवृत्तिमत्त्वेन निश्चितत्व प्रमेयत्वस्य वर्तत इति ताशहेतोःधर्म्यमक्षतमिति । एवं नास्तित्वं स्वभावेनास्तित्वेनाविनाभूतं विशेषगत्वात्, वैधय॑वदित्यनमानेनापि तयोरविनाभावसिद्धिः।
ननु पृथिवीतरेभ्यो भिद्यते गन्धवत्त्वादित्यादिकेवलव्यतिरेकिहेतो वैधम्यं साधम्र्येण विनाऽपि दृश्यते इति प्रोक्तानुमाने न हष्टान्तसङ्गतिरिति चेन्न, केवलव्यतिरेकिहेतावपि साधय॑स्य 'पटादावेव संभवात् । पक्षभिन्न एव साधम्यं न पक्ष इति नियमाभावात् । इतिभङ्गद्वयम् ।
ही है। इस अनुमान में अभिधेयत्व साध्य है, उसके प्रभाव के अधिकरण आकाश के फूल वगैरह में प्रमेयत्व हेतु का न रहना निश्चित है। इस प्रकार साध्याभाव के मंधिकरण में न रहना रूप धर्म प्रमेयत्व में है इसलिए इस हेतु मे पूर्ण रूप से वैधर्म्य भी है। इसी तरह नास्तित्व अस्तित्व स्वभाव से व्याप्त है, क्योकि वह विशेषण है, जैसे वैधयं । इस अनुमान के द्वारा नास्तित्व अस्तित्व का अविनाभाव सिद्ध है।
शंका-पृथ्वी जल मादि से भिन्न है। क्योंकि उसमे गन्धवत्त्व है। इस केवल व्यतिरेकी हेतु मे वैधर्म्य साधर्म्य के बिना भी दिखाई पड़ता है-इसलिए कहे हुए अनुमान मे जो दृष्टान्त दिया था "वैधर्म्य के तुल्य" यह असंगत है ।।
ममाधान-ऐसा नही है। केवत व्यतिरेकी हेतु मे भी साधयं का सभव घट आदि रूप पृथ्वी मे ही है। और पक्ष से भिन्न में ही साधर्म्य चाहिए न कि पक्ष मे, ऐसा नियम तो नही है। इसलिये पृथ्वी से अभिन्न घट रूप पक्ष में भी साधम्यं जाने से कोई हानि नही है । इस तरह दो भग सिद्ध हुए।