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( १०५ ) तिषु सहेतुकमेव शोकप्रमोदमाध्यस्थ्य याति । गोरसत्वेऽपि दधि. पयसोभिन्नत्वात् पयोव्रतो दधि नात्ति, नापि दधिवतः पयोऽत्ति । अगोरसवतस्तुद्वयमपि नात्ति, तस्मात्तत्त्वस्य त्रयात्मकत्वान्नित्यानित्यात्मकत्वमिति । तथा चोक्त स्वामिसमन्तभद्राचार्येण
घटेमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्, शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् । पयोक्तो न दध्यत्ति न पयोत्ति न दधिवतः,
अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् । ' तथा स्वर्ण के ध्रौव्य रहते हए क्रमशः शोक, भानन्द तथा माध्यस्थ को सहेतुक ही प्राप्त होते है । गोरस के भी दही दूध से भिन्न होने से जिसके दूध खाने का व्रत है, वह दही नही खाता, जिसके दही खाने का व्रत है वह दूध नही खाता और जिसके गोरस ही का त्याग है वह न दूध खाता और ने दही खाता। इसलिये तत्त्व के त्रयात्मक होने से नित्यानित्यपना है। स्वामी समन्तभद्राचार्य ने भी यही कहा है:__"जब सोने के कलश को गलाकर मुकुट बनाया गया तो कलशार्थी को दु.ख हुमा, मुकुट चाहने वाले को हर्ष हुआ और जो मात्र सुवर्णाकाक्षी था उसे माध्यस्थ भाव रहा-यह सब सहेतुक है और वह कारण यह है कि वस्तु उत्पादादि त्रयात्मक है।
जिस पुरुष को दूध पीने का व्रत है वह दही को नही खायगा ओर जिसको दही खाने का व्रत है वह ' दूध का पान नहीं करेगा और जिसे गोरस के त्याग का व्रत है वह न दूध लेगा और न दही, क्योंकि दोनो ही अवस्थामो मे गोरस है ही। इमसे ज्ञात होता है कि प्रत्येक वस्तु उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक है।