________________
त्यस्य स्वार्थानुमानवत् द्वौ अव
धारत्वेन । पक्षो हेतुरित्यङ्गद्वयमपि स्वार्थानुमानस्य । एतत्त, विवक्षायाः वैचित्र्यात्, साध्यधर्मविशिष्टस्य धर्मिण एव पक्षत्वात् ।
परोपदेशापेक्षसाधनज्ञानाद् यत् साध्यविज्ञानं भवति तत्परार्थानुमान । प्रतिज्ञाहेतुरूपपरोपदेशात् श्रोतुरुत्पन्न साधनज्ञानहेतुकं साध्यपरिज्ञानं परार्थानुमानमित्यर्थ. । पर्वतोऽय वह्निमान धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेः, तथैव धूमवत्त्वोपपत्तेर्वेति वाक्यमाकण्यं तद्वाक्याथ विचारयतः स्मृतव्याप्तिकस्य श्रोतुरनुमानमुपजायते । एतस्य परार्थानुमानप्रयोजकवाक्यस्य स्वार्थान यवौ, प्रतिज्ञा हेतुश्चेति । तत्र पक्षवचन प्रतिज्ञा, यथा पर्वतो वह्निमानिति । साधनवचनं हेतुः, यथा धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेका आधार होने से अंग है। स्वार्थानुमान के पक्ष और हेतु ये दो अंग भी माने जाते है। यह सव कथन की विचित्रता है, क्योंकि साध्य धर्म विशिष्ट धर्मी को ही पक्ष कहते हैं ।
परोपदेश से होने वाला साधन से साध्य का ज्ञान परार्थानुमान है । प्रतिज्ञा हेतु रूप परोपदेश से श्रोता को उत्पन्न होने वाला साध्य का ज्ञान परार्थानुमान कहलाता है। जैसे यह पर्वत अग्निवाला है, धूम वाला होने से-या धूम वाला अन्यथा नहीं हो सकता। इस वाक्य को सुनकर और उस वाक्य के अर्थ का विचार करता हुग्रा जिस श्रोता ने अग्नि और धूम की व्याप्ति ग्रहण की है, उसे व्याप्ति का स्मरण होने पर जो अग्निज्ञान उत्पन्न होता है वह परार्थानुमान है। इस परार्थानुमान के प्रयोजक वाक्य के दो अवयव होते है । एक प्रतिज्ञा और दूसरा हेतु । धर्म और धर्मी के समुदाय रूप पक्ष के वचन को प्रतिज्ञा कहते है, जैसे यह पर्वत अग्नि वाला है। साध्य से अविनाभाव रखने वाले साधन के वचन को हेतु कहते हैं, जैसे धूम वाला अन्यथा नहीं हो सकता या धूम वाला होने से । हेतु के इन दोनों