Book Title: Jain Darshansara
Author(s): Chainsukhdas Nyayatirth, C S Mallinathananan, M C Shastri
Publisher: B L Nyayatirth

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Page 138
________________ चेन्न, अनेकान्तात्मकस्याऽपि वस्तुनः एकधर्मात्मकत्वज्ञानमपि धर्मान्तरानिपेधकं सम्यग्ज्ञानमेव । तद्धीतरधर्मनिषेधक मिथ्याज्ञान स्यादिति न नयस्य मिथ्याज्ञानत्व, तस्य सापेक्षत्वात् । ततो नयस्य स्वार्थंकदेशनिर्णयलक्षणत्वं समीचीनम् । . एष नयो द्विविधो द्रव्याथिकः पर्यायाथिकश्चेति । द्रव्याथिकस्य त्रयो भेदा , नैगमः संग्रहो व्यवहारश्चेति । निगमः सकल्पस्तत्रभवो नैगमः । अयं हि नयोऽनभिनिर्वत्तार्थसंकल्पमात्रग्राही, यथा जलेन्धनाद्याहरणे व्याप्रियमाण कञ्चित् पुरुष कश्चित् पृच्छति किं करोति भवान् ?स आह अोदन पचामीति, किन्तु न समाधान-ऐसा नही है। वस्तु के अनेक धर्मात्मक होने पर भी उसके एक धर्म को जानने वाला नय यदि धर्मान्तरो का निषेध नहीं करता अर्थात् अपने अश को मुख्य रूप से ग्रहण करके भी अन्य अंशो को गौण तो करे पर उनका निराकरण न करे, उनकी अपेक्षा करे तो वह सम्यग्ज्ञान ही है । अगर वह इतर धर्मों का निपेध करता है वो वह निश्चय ही मिथ्याज्ञान है । अत नय मिथ्याज्ञान नहीं है क्योकि वह नयान्तर की अपेक्षा करता है । इस प्रकार नय का वस्तु का एक अंश जानना रूप लक्षण समीचीन ही है। यह नय दो प्रकार का है-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । द्रव्य को मुख्य रूप से ग्रहण करने वाला नय द्रव्याथिक और पर्याय को ग्रहण करने वाला नय पर्यायार्थिक कहलाता है। द्रव्याथिक के तीन भेद है-नैगम, संग्रह और व्यवहार । निगम सकल्प को कहते है उसमें जो हो ससे नैगम कहते हैं । यह नय वास्तव मे अपूर्ण पदार्थ मे सकल्प मात्र को ग्रहण करता है। जैसे अल ईन्धन वगैरह लाने में लगे हुए किसी पुरुप को कोई पूछता है कि आप क्या करते है ? वह कहता है चांवल पकाता है, लेकिन

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