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( ६१ ) अविनाभूतार्थदर्शनाहा प्रामाण्यं निश्चीयते। तेषां च स्वतः प्रामाण्यनिश्चयान्नानवस्थावकाश । एतच्च सर्व प्रत्यक्षविषये। अनुमाने तु सर्वस्मिन्नपि स्वत एव प्रामाण्यमव्यभिचारलिङ्गसमुत्थत्वात् । शाब्दे तु प्रमाणे दृष्टार्थेऽर्थाव्यभिचारस्य दर्शनात सवादाद्यधीनः परत प्रामाण्यनिश्चयः। अदृष्टार्थे तु सवादमन्तरेणापि प्राप्तोक्तत्वादेव प्रामाण्यनिश्चय. इति । ततः प्रामाण्यस्य ज्ञप्तिः कथंचित् स्वतः कथचित् परत इति श्रद्धातव्यमिति ।
प्रमाणविशेषप्रत्यक्षस्वरूपम प्रमाणसामान्यस्वरूपमभिधाय तद्विशेषस्वरूपविवेचनमधुना प्रारम्यते । तत् प्रमाण द्विविध, प्रत्यक्ष परोक्ष च । तत्रविशद
उस पदार्थ से अविनाभावी पदार्थ के देखने रूप ज्ञानान्तर से ही उसके प्रामाण्य का निश्चय होता है । और उन ज्ञानान्तरो के स्वत प्रमाण होने से अनवस्था दोष का प्रसंग नहीं आता। यह सम्पूर्ण कथन तो प्रत्यक्ष प्रमाण के सम्बन्ध में हुआ। सम्पूर्ण अनुमानो मे तो प्रामाण्य का निश्चय स्वतः होता है क्योकि वे अव्यभिचारी हेतु से पैदा होते है । और आगम प्रमाण मे तो जो पदार्थ दृष्टिगोचर है वे उसी रूप दिखाई पड़ने से तथा तर्क वितर्क के माधीन होने से उनके प्रामाण्य का निश्चय परत होता है। और जो पदार्थ अदृष्ट है उनमें तो तर्क वितर्क की अपेक्षा के बिना ही सच्चे देव के द्वारा कहे जाने से ही प्रामाण्य का निश्चय होता है। इसलिए प्रामाण्य का ज्ञान कथंचित् स्वत और कचित् परत होता है-ऐसा श्रद्धान करना चाहिए।
• प्रमाण के भेद प्रत्यक्ष का स्वरूप १० प्रमाण सामान्य का स्वरूप कहकर अव प्रमाण विशेष का स्वरूप विवेचन किया जाता है । वह प्रमाण दो प्रकार है,