________________
( ४७ ) ननु तत्वार्थश्रद्धानात् समुपलभ्यमानात्मेतरविवेकरूपं सम्यग्दर्शनं तु प्रतिपन्न, किंतु सम्यग्ज्ञानसम्यकचारित्रयोः स्वरूपं तु न निर्मातमिति तत्स्वरूपं प्रोच्यतामितिचेच्छ रण
संशयविपर्ययानव्यवसायरहितं साकारमात्मपरस्वरूपस्य ग्रहणं सम्यग्ज्ञानं । सम्यक्चारित्रं तु अशुभाद् विनिवृत्तिः शुभे प्रवृतिर्वा व्रतसमितिगुप्तिरूपा । एतच्च व्यवहारनयमाश्रित्य, निश्चयनयात्त सम्यग्ज्ञानिनो बाह्याभ्यंतरक्रियानिरोधसमुत्पन्नास्मशुद्धिविशेष सम्यक्चारित्रं कथ्यते । बाह्यक्रिया हि हिंसादिपञ्चपापानि, अभ्यन्तरक्रिया च योगकषायो। मनोवाक्कायनिमित्त आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो योगः । कषायस्तु क्रोधमानमायालोभात्मिका आत्मनो विभावपरिणतिः ।
शका:-तत्त्वों के स्वरूप के श्रद्धान से उत्पन्न निज पूरके भेद जाम रूप सम्यग्दर्शन को तो समझ लिया, लेकिन सम्यग्ज्ञान और सम्यकुचारित्र का स्वरूप तो जाना नहीं । अतः दोनो का स्वरूप काहिए
उत्तर:-सुनिए । प्रात्मा और पर का संशय, विपर्यय और मनध्यवसाय रहित विशेष ग्रहण होना-ज्ञान होना सम्यग्ज्ञानु है। मौर सम्यक्चारित्र अशुभ कार्यों अर्थात् पंच पापों से कषायों से दूर हटकर शुभु कार्य अर्थात प्रत् समित्ति गुप्ति रूप प्रवृत्ति करना है। यह व्यवहार नय के प्राश्रय से कथन है। निश्चय नय की अपेक्षा तो सम्यग्ज्ञानी जीव के बाह्य और अभ्यन्तर क्रियाओं के रोकने से जो आत्मा की विशेष निर्मलता होती है वह सम्यकचारिय है। बाह्य क्रिया निश्चय से हिसादि पांच पाप रूप है और अभ्यन्तर क्रिया योग और कषाय रूप है। मन, वचन और काय के निमित्त से मात्मा के प्रदेशों का सकम्प होना अर्थात् आत्म प्रदेशो में अस्थिरता होना योग है। कोष, मान, माया, लोभ रूप आत्मा की विभाव परिणति को झयाय कहते हैं।
-
-