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( ५४ ) लेयत्वं । शायलयत्वं हि वर्णविशेपो न सर्वेपू गोषु वर्तते । लक्ष्यवृत्तित्वे सत्यतक्ष्यत्तित्वमतिव्याप्त, यथा गो. पशुत्वं । लक्ष्यमतिक्रम्य व्याप्तमित्यतिव्यात,महिषादीनामपि पशुत्वात् । लक्ष्यवृत्तिस्वाऽसंभवित्वमसंभव, यथा नरस्य विषारिणत्व । विषारिणत्वं हि नैकस्मिन्नपि नरि वर्तते तस्मादसभवित्वमस्य । इमे त्रयो लक्षणाभासभेदाः। प्रव्याप्त्यतिव्याप्त्यसभवास्तु न लक्षणाभासभेदा अपितु लक्षणदोषा', एतेपां भाववाचकत्वात, पूर्वेपां तु विशेपणस्वात् । अयञ्च केवल शब्दभेदोऽर्थस्तु न भिद्यते ।
प्रमारणसामान्यस्वरूपम् “प्रमाग मम्यग्ज्ञानं । नत्त स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं प्रमाणत्वात् । यज्ञान स्वमपूर्वमर्थञ्च निश्चयात्मकरूपेण विजानाति
सावलापन रग विशेष है-वह सब गायों में नहीं रहता। जो लक्ष्य में भी रहे और अलक्ष्य मे भी रहे वह अतिव्या कहलाता है, जैसे गाय का लक्षण पशुपना। लक्ष्य का उल्लंघन करके ही रहे उसे प्रतिव्याप्त कहते है, भैस वगैरह के भी पशु होने से। लक्ष्य मे रहे ही नहीं उसे असंभवी कहते है, जैसे मनुष्य का लक्षण सीगवान होना। सीगवान होना यह एक भी पुरुष में नही रहता, इसलिए यह असंभवी है। ये तीन लक्षणाभास के भेद हैं। शका-अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव तो लक्षणाभास के भेद नहीं है बल्कि लक्षण के दोष है, इनके भाव वाचक होने से, और पहले वालों के विशेषण होने से। समाधान-यह केवल शब्द भेद है अर्थ में कोई भेद नही है।
प्रसारण का सामान्य स्वरूप सम्यक ज्ञान को प्रमाण कहते है। वह ज्ञान स्व और अपूर्व पदार्थ का निश्चयात्मक होता है प्रमाण होने से। जो ज्ञान