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अग्नेः स्वरूपं, तदग्नि जलादिभ्यो व्यावर्तयति । तथैव चेतनत्वमात्मानमात्मेतरेभ्यः रूपादयश्च पुद्गलं पुद्गलेतरेभ्यः । यद् वस्तुस्वरूपात्मकत्वाभावेऽपीतरव्यावृत्तिज्ञानहेतुः तदनात्मभूतं यथा दण्ड पुरुपस्य । दण्डिनमानयेत्युक्त हि दण्डः पुरुषात्मकत्वाभावेऽपि दण्डिन दण्डीतरेभ्यो व्यावर्तयति । तथा चोक्त "तथात्मभूतमग्नेरौष्णयमनात्मभूत देवदत्तस्य दण्ड इति ।". __ यलक्षण न भवति किन्तु लक्षणवदाभासते तल्लक्षणाभासं । तत् विविधमव्याप्तमतिव्याप्तमसभवि चेति । ईषद्व्याप्तमित्यव्यातअपदर्थस्य नजःप्रयोगात् यथानुदरा कन्या । अव्याप्तहि लक्ष्यका देशवृत्ति । निखिलेषु लक्ष्येपु तस्य वृत्त रभावात्, यथा गो शाव
उष्णता, आत्मा का लक्षण चैतन्य, पुद्गल का लक्षण रूप, रस, गन्ध, स्पर्शमयता । उष्णता अग्नि का स्वरूप है वह अग्नि को जल वगैरह से अलग कराता है। उसी तरह चैतन्य आत्मा को आत्मा के अलावा अन्य द्रव्यो से तथा रूपादि पुद्गल को पुद्गल के अलावा और द्रव्यों से अलग कराता है। जो वस्तु का स्वरूप तो नही होता पर दूसरों से भिन्न जताने का कारण होता है यह अनात्मभूत है यथा पुरुष का लक्षण दण्ड । दण्डे वाला ऐसा कहने पर निश्चय से दण्डा पुरुप का स्वभाव नही है तो भी उस दण्डी को, नहीं दण्डे वालो से अलग करता है। ऐसा ही कहा है "अग्नि का उष्णत्व आत्मभूत लक्षण है तथा देवदत्त का दण्ड अनात्मभूत लक्षण है।"
जो लक्षण तो नहीं है किन्तु लक्षण जैसा दिखता है वह लक्षणाभास कहा जाता है । वह तीन प्रकार का है-अव्याप्त, अतिव्याप्त और असभव । थोडे मे रहे उसे अव्याप्त कहते हैं। यहां ईषत् / थोड़ा ) अर्थ मे नत्र का प्रयोग है जैसे अनुदरा कन्या। निश्चय से लक्ष्य के एक देश मे रहना ही अव्याप्त है। वह पूरे लक्ष्य मे नही रहता, जैसे गाय का लक्षण सांवलापन ।