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( ४६ ) क्षायोपशमिकस्य हीनमानतया प्रकृष्यमारणस्य केवलिनि परमप्रकर्पसिद्धः। क्षायिकस्य तु हानेरेवानुपलव्धे. कुत परमप्रकर्पो येन व्यभिचारसंभावनाऽपि स्यात् ।
नन किं स्वरूपाणि कर्माणि, येषा क्षयान्मोक्षः स्यादितिचेत्जीवं परतंत्रीकुर्वन्ति, स परतत्री क्रियते वा यस्तानि कर्मारिण, जीवेन वा मिथ्यादर्शनादिपरिणामै क्रियन्त इति कर्माणि । तानि द्रव्यभावविकल्पेन द्वधा । तत्र द्रव्यकर्माणि ज्ञानावरणादीन्यष्टौ मूलप्रकृतिभेदात् । उत्तरप्रकृतिभेदात्त अष्टचत्वारिंशदुत्तरशतम् । ततोऽप्यधिकान्युत्तरोत्तरप्रकृतिभेदात् । एतानि च पुद्गलपरिणामात्मकानि जीवस्य पारतंत्र्यनिमित्तत्वात् निगडादिवत् । न च क्रोधादिभिर्व्यभिचारः तेषां जीवपरिणामाना पारतंत्र्यस्वरूप
उस क्षायोपशमिक ज्ञान के भी वृद्धिंगत होते हुए केवलज्ञान मे उसका परम प्रकर्ष सिद्ध है ही। क्षायिक ज्ञान की तो जब हानि ही नहीं होतो तो परम प्रकर्ष भी कैसे हो सकता है कि जिससे व्यभिचार की सभा
यह पूछे कि कर्मों का क्या स्वरूप है जिनकेक्षयसे मोक्ष होता है तो उत्तर है कि जो जीवको पराधीन करते है, या जीव जिनके द्वारा पराधीन किया जाता है उन्हे कर्म कहते है अथवा जीव के द्वारा मिथ्यादर्शनादि रूप भावो से जो किए जाते है वे कर्म हैं । वे कर्म द्रव्य और भाव भेद से २ प्रकार है। उनमे द्रव्य कर्म ज्ञानावरण वगैरह मूल प्रकृति रूप से पाठ प्रकार का है और उत्तर प्रकृति के भेद से एक सो अड़तालीस प्रकार का है। उत्तर प्रकृतियो के भी अवान्तर भेद किए जाय तो और भी अधिक भेद हो सकते है। ये सब प्रकृतिया पुद्गल पर्याय रूप है, क्योकि ये जीव की पराधीनता की कारण है-वेडी वगैरह की तरह। इसमे क्रोध वगैरह से व्यभिचार नही
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