________________
'
( २२ }
उपशांतक्षीण मोहप्रकृतय- स्वात्मानुभव कुर्वति । स्वात्मानुभवस्तु रागद्वेषोपरमादिष्टानिष्टकल्पनाभावात् स्वात्मन्यवस्थानं । पचपरमेष्ठिषु त्रयः परमेष्ठिन आचार्योपाध्यायसाधवः अंतरा
तमान एव ।
परमात्मा द्विविधो सशरीरोऽशरीरश्चति । तयोरेकत्ववितर्काविचाराभिघद्वितीयशुक्लध्यानेन विनष्टज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरायाख्यचतुर्घातिकर्मा समवाप्तलोकालोकप्रकाशककेवलावबोधः त्रयोदशचतुर्दशगुणस्थानवर्ती तीर्थंकर इतरो वा केवली सशरीरपरमात्मा कथ्यते तस्य शरीरेण सहितत्वात् । एष त्रयोदशगुणस्थानवर्ती सदेहपरमात्मैव तीर्थं प्रणोतिभव्यान् भवाम्वोदधितारकं धर्ममुपदिशति च । सकलसुरासुरनरेद्र
तत्पर रहते हुए मोहनीय कर्म की प्रकृतियो का उपशम या क्षय करते हुए अपने आत्मा का अनुभव करते है । राग द्वेष के नष्ट हो जाने पर इष्ट अनिष्ट कल्पना के न होने से अपने श्रात्मा मे ही स्थिर होना स्वात्मानुभव है । पाच परमेष्ठियो मे आचार्य, उपाध्याय, और साधु ये तीनों ही अन्तरात्मा है ।
2.
परमात्मा दो प्रकार का है शरीर सहित चोर शरीर रहित । उन दोनों मे एकत्ववितर्कवीचार नामक दूसरे शुक्लव्यान के बल से जिसने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और ग्रन्तराय इन चारो घातिया कर्मों का नाश कर दिया है, लोक मौर लोक को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञान को जिसने प्राप्त कर लिया है ऐसा तेरहवे गुणस्थानवाला तीर्थंकर या दूसरा केवली सशरीर या सकल परमात्मा कहलाता है; क्योकि वह शरीर सहित होता है । तेरहवें गुरणस्थानवाला यह सदेह तीर्थकर परमात्मा ही तीर्थ चलाता है और भव्य जीवो को मसार समुद्र से पार लगाने वाले धर्म का उपदेश करता है । सम्पूर्ण इन्द्र नागेन्द्र चक्रवर्ती जिनके चरण कमलो की सेवा