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स्तथापि ससारमोक्षतद्धेतुप्रतिपत्तिप्रयोजनार्थाय पृथा निर्देश अावश्यकः ।
तहि पृण्यपापयोरपि पृथग्ग्रहणं कर्तव्यमिति न वाच्यं । पुण्यपापयोरानववंधभेवमात्रत्वात् । अत्रास्त्रववंधयोः संसारहेतुत्वं संपरनिर्जरयोश्च मोक्षहेतुत्वमनसंधेयम् ।।
मास्रवतत्त्वम्-आत्मनो येन परिणामेन पूण्यपापरूपं कर्म आस्रवति स परिणामः, तत्कर्मागमनं चास्रव उच्यते । पूर्वोभावासवः अपरश्च द्रव्यास्रव इति अयं द्विविधोऽप्यास्रवः प्रत्येक साम्परायिकेर्यापथभेदाद् द्विविधः । मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगाः स्वोत्तरभेदविशिष्टा परिणामाः भावात्रवत्वेन परि• गण्यते तद्धतुककर्मपुद्गलानामागमनं च द्रव्यास्रवत्वेन ।
ससार और मोक्ष और उनके कारणों का ज्ञान कराने के लिए अलग कहना आवश्यक है।
फिर तो पुण्य और पाप को भी अलग ग्रहण किया जाना चाहिए था-ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि पुण्य और पाप आश्रव भोर बन्ध के ही भेद है। इनमें आस्रव और वन्ध को संसार का कारण और मंवर निर्जरा को मोक्ष का कारण • समझना चाहिए।
आश्रय-तत्त्व मात्मा के जिस परिणाम से पुण्य पाप-रूप कर्म आता है वह परिणाम और जानावरणादि पुद्गल कर्मों का पाना आश्व कहलाता है। पहला भावांश्रव है और दसरा द्रव्याश्रव। यह दोनों ही प्रकार का आश्रव साम्परायिक और ईर्यापथ के भेद से दो प्रकार का है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग रूप परिणाम अपने अपने उत्तर भेदो के साथ भावाश्रव रूप माने जाते हैं और उनके कारण से कम पगलों का माना द्रव्याश्रव है।