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( १७ ) परमात्मन एवेश्वरत्वात् । एष भेदस्तु कर्मकृतः । यथा शुद्धा. शुद्धकांचनयोः किट्टकालिकादिकृत भेदः । एतदपसरणे तु निखिलमपि कांचनं समानमेव । तथैवात्मान अपि सर्वे समानाः एव कर्मापसरणे। ' ये त्वात्मनो नरनारकादिपर्यायकृत जातिकुलादिकृत शरीरकृतं च भेदं वास्तविक मन्यते ते मूढा बहिरात्मान एव । न तेषां कदाचनापि मुक्तिः स्यात् । तथा चोक्त पूज्यपादेनं महा
मनसा
19184/बहिरात्मेंद्रियद्वाररात्मज्ञानपराङ मुखः ।
स्फुरितश्चात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति ।
नरदेहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते नरम् । . तिर्यञ्च तिर्यगङ्गस्थं सुरागस्थ सुरं तथा। कोई भिन्न आत्मा नहीं माना जाता। परमात्मा ही ईश्वर है। यह भेद तो कर्म के कारण से है। जैसे शुद्ध और अशुद्ध सोने में किट्टिमा-कालिमा वगैरह का भेद है। जब यह किट्टिमा कालिमा दूर हो जाती है तो सब सोना समान ही है। उसी प्रकार कर्मो के हट जाने पर सम्पूर्ण आत्माएँ समान ही हैं।
जो जीव के नर नारकादि पयार्यो से, जातिकुलादि से और शरीर से होने वाले भेद को सत्य मानते है वे मूर्ख तो बहिरात्मा ही हैं। उनकी मुक्ति कभी नही होगी । जैसा कि महामना पूज्यपाद आचार्य ने कहा है
Kआत्मज्ञान शून्य वहिरात्मा इन्द्रियों से प्रकट होने वाले अपने शरीर को ही आत्मा निश्चय करता है।
वह मूर्ख, मनुष्य देह में स्थित आत्मा को मनुष्य मानता है, तिथंच शरीर में रहने वाले को तिथंच तथा देव के शरीर में रहने वाले आत्मा को देव समझता है। नास्की के शरीर