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ननु चात्मनः पृथिव्यादिचतुष्टयात्मकत्वाद् रूपाधात्मकत्व मितिचेन अचेतनेभ्यश्चैतन्योत्पत्त्ययोगात् । न चात्मनि पृथिव्यादिगुरगधारणेरणद्रवोष्णतालक्षणोऽन्वयो दृश्यते । यदि भूतचतुष्टयात्मकत्वमात्मनः स्वीक्रियेत तहि तहिनजातवालकस्य स्तनादावभिलाषाभावप्रसंगः स्यात् । अभिलाषो,हि प्रत्यभिज्ञान सति भवति, प्रत्यभिज्ञान च स्मरण, स्मरणं चानुभवे भवतीति पूर्वानुभवः सिद्ध । मध्यदशायां तथैव व्याप्ते: । अन्यथा पूर्वजन्मस्मृतिनं स्यात् । मृताना रक्षोयक्षादिकुलेषु स्वयमुत्पन्नत्वेन कथयतां दर्शनाच्च सनातन प्रात्मा सिद्धः । तथा चोक्त
तदहर्जस्तनेहातो रक्षोदृष्टेभवस्मृतेः। ' भूतानन्वयनाद सिद्धः प्रकृतिज्ञः सनातनः ।
शंका-मात्मा के पृथ्वी, जल, अग्नि, वाय इन चारों रूप होने से रूपादिक पना है-उत्तर) ऐसा नहीं है क्योंकि अचेतन इन चारों से वेतन की उत्पति नही हो सकती। और न आत्मा में पृथ्वी का-धारण, जल की द्रवता, वायु का प्रेरण और अग्नि की उष्णता गुरए ही प्राप्त है।
यदि आत्मा को चार भूतात्मक स्वीकार कर लिया जाय तो उसी दिन उत्पन्न होने वाले बालक के स्तन पान की अभिलापा के अभाव का प्रसंग आ जायगा ।। प्रभिलाषा निश्चय से प्रत्यभिज्ञान के होने पर होती है। प्रत्यभिज्ञान स्मति (पर्व पदार्थ की याद ) पूर्वक होता है। और स्मृति धारण रूप अनुभव के होने पर होती है । अत. पूर्वानुभव सिद्ध हो जाता है । जोवन के मध्य भाग में भी इसी तरह की अभिलापा आदि । की व्याप्ति सिद्ध है। अन्यथा-पूर्व जन्म का स्मरण नहीं होगा । मरे हए जीवो का राक्षस यक्ष आदि कूलों में उत्पन्न होना स्वयं के द्वारा कहते हुए देखा जाता है अतः मारमा
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