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द्वितीय अध्याय : पतित से पावन सुध्यान में लवलीन हो, जब घातिया चारों हने। सर्वज्ञ बोध विरागता को, पा लिया प्रभु आपने॥ उपदेश दे हितकर अनेकों, भव्य निजसम कर लिये।
रविज्ञान-किरण प्रकाश डालो वीर प्रभु मेरे हिये। आज से नहीं अनादि से पतित बने हुए हो, पावन बनने का रास्ता आपने निकाला ही नहीं। अगर एक बार भी निकाल लेते तो इस संसार सागर से पार हो जाते। लेकिन अपने अज्ञान के कारण हम चौरासी लाख योनियों के दुःख उठा रहे हैं। कहा भी है
आकुलित भयो अज्ञान धारि, ज्यों मृग मृगतृष्णा जानि वारि। तन परिणति में आपो चितार, कबहुँ न अनुभवो स्वपदसार॥१०॥ तुमको जाने बिन जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेश। पशु नारक नर सुरगति मँझार, भव धर-घर मर्यो अनंत बार॥११॥
(दौलतसम कृत, वर्शन स्तुति) भूधरदास जी कहते हैं
इस भव-वन के माँहि, काल अनादि गमायो।
भ्रम्यो चहुँ गति माँहि, सुख नहिं दुःख बहु पायो॥२॥ और भी
कबहुँ इतर निगोद, कबहूँ नरक दिखावै।
सुर-नर-पशु-गति माँहि, बहु विधि नाच नचावै॥४॥ अरे! कहाँ-कहाँ रहे हम, कितने दुःख उठाये, चौरासी लाख योनियों में बार-बार चक्कर लगाते रहे। __ श्री गोम्मटसार जीवकांड में चौरासी लाख योनियों के भेद विस्तार से बताए गए हैं
सामण्णेण य एवं णव जोणीओ हवंति वित्थारे। लक्खाण चतुरसीदी जोणीओ होंति णियमेण॥८॥ णिच्चिदरधातुसत्त य तरुदस वियलिंदियेसु छच्चेव। सुरणिरयतिरियचउरो चोहस मणुए सदसहस्सा॥४९॥
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