Book Title: Jain Bharati
Author(s): Shadilal Jain
Publisher: Adishwar Jain

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Page 22
________________ दिव्य नाविक मुस्कराया और कहने लगा, भोले यात्री, दुःख रूपी ससार सागर में पडे यात्रियो को मैं सदा से नदी पार कराता आ रहा हूं । मै बदले मे कोई शुल्क आदि नही लेता । 'पाप सुरक्षापूर्वक पार हुए'-बस यही मेरा शुल्क है।" ___ ऐसे ही दिव्य खिवैया तीर्थकर कहलाते है जो स्वय कर्मबंधन से मुक्त होकर अन्य संसारी जीवो को नि.स्वार्थ भाव से इस संसार से पार कराते हुए अपने समान आत्मद्रष्टा और कृतकृत्य बनाते है । जैन परम्परा मे, इस अवसर्पिणी काल में, चौबीस तीर्थंकर हुए है। प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव या आदिनाथ भगवान् का जिक्र हम पहले कर आए है। इक्कीसवे तीर्थकर श्री नमिनाथ, बाईसवे श्री अरिष्टनेमि नाथ, तेईसवे श्री पाश्र्व नाथ और चौबीसवे श्री महावीर स्वामी हुए। भगवान् ऋषभ का वर्णन भागवत पुराण तथा वेदो मे आता है । शेष तेईस तीर्थकरो का हाल जैन पुराणो तथा आगमो मे फुटकर रूप में आता है । इतिहास २१ वें तथा २२वे तीर्थकर के सम्बन्ध में साधारण सी रोशनी डालता है, २३वे तीर्थकर श्री पार्श्व नाथ जी महाराज को तो ऐतिहासिक महापुरुष मान लिया गया है। भगवान् महावीर का तो विशाल साहित्य हमें प्राप्त है ही, यद्यपि इसको भी कई विद्वान लोग बचाखुचा साहित्य ही मानते है । अब हम यह जानना चाहेगे कि २१वे तीर्थकर से लेकर २४वें तक भारत को तथा विश्व को क्या निधि प्राप्त हुई ? इक्कीसवें तीर्थकर भगवान् नमिनाथनमि मिथिला के राजा थे। हिन्दू पुराणो में उन्हे 'राजा जनक का पूर्वज' माना गया है। नमि ने प्रवज्या (साधु वृत्ति ) ग्रहण की । नमि की अनासक्त वृत्ति मिथिला राजवंश मे 'जनक' तक पाई जाती है। इसी आध्यात्मिक परम्परा के कारण उनका वश तथा समस्त प्रदेश ही 'विदेह' (देह से निर्मोह, जीवनमुक्त) कहलाया और उनकी अहिंसात्मक प्रवृति के कारण ही उनका

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