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मारसिंह के उत्तराधिकारी 'राचमल्ल चतुर्थ' थे जिनके जगत् विख्यात मत्री और सेनापति 'चामुण्डराय' थे। चामुण्डराय ने श्रवणबेलगोल के 'विंध्यगिरि' पर 'चामुण्डराय बस्ति' निर्माण कराई तथा 'गोम्मटेश्वर' की उस विशाल ५७ फीट ऊ ची प्रस्तर मूर्ति का उद्घाटन कराया जो प्राचीन भारतीय मूर्तिकला-स्थापत्यकला का एक गौरवशाली प्रतीक है।
(iv) राष्ट्रकूट राजवश
ईसा की सातवी शताब्दी से दक्षिण भारत से जिस राजवंश का बल व राज्यविस्तार बढा, उस राष्ट्रकूट वश से तो जैन धर्म का घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है । इन राजाप्रो में अमोघवर्ष' विशेष रूप से उल्लेखनीय है । यह जैनाचार्य 'जिनसेन के शिष्य थे। अमोघवर्ष एक विद्वान् राजा थे। इन्होने 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' ग्रंथ का निर्माण किया। अग, बंग मगध, मालवा, चित्रकूट आदि देशों के राजा अमोघवर्ष की सेवा मे रहते थे। गुजरात सहित दक्षिण प्रदेश पर इनका शासन रहा था। अतिम समय मे राज-पाट त्याग कर अमोघवर्ष जैन मुनि बन गये थे।
इनके उत्तराधिकारी कृष्ण द्वितीय' के काल में 'गुणभद्राचार्य' ने 'उत्तर पुराण' को पूरा किया, 'इन्द्रन दि' ने 'ज्वाला-मालिनी-कल्प' की रचना की, 'सोमदेव' ने 'यशस्तिलक चम्पू' नामक काव्य रचा तथा 'पुष्पदंत' ने अपनी विशाल श्रेष्ठ 'अपभ्र श' रचनाएं प्रस्तुत की । कृष्ण द्वितीय ने कन्नड़ के सुप्रसिद्ध जैन कवि 'कौन्न' को 'उभयभाषा-चक्रवर्ती' की उपाधि से विभूषित किया ।
प्रमोषवर्ष के पुत्र अकालवर्ष' और उसके वंशज जैन धर्म के दृढ़ अनुयायी थे । उनमें से 'इन्द्र' नरेश ने मुनिदीक्षा अगीकार की थी।