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स्थावाद अथवा अनेकांतवाद ग्रंथों में लिखा रह गया और व्यवहार मे उसका स्थान 'माग्रहबाद' ने ले लिया।
(xi) क्षात्र-तेज से बनिक-वृत्ति की भोर:
मंगवान महावीर ने केवल ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् छात्र-तेज और ब्रह्म-तेज का सुन्दर सम्मिश्रण उपस्थित किया था। क्षात्र वृत्ति एक दम नि:स्वार्थ तथा दूसरों को सहायता व संरक्षण देने वाली लोक-कल्याण वत्ति है। जब तक जैन धर्म को क्षात्र तेज व ब्रह्म तेज को आश्रय रहा वह विकासोन्मुख ही रहा, प्रगतिशील ही रहा। परन्तु जब क्षात्र तेज नष्ट हो गया और ब्रह्मतेज कमजोर पड़ने लगा तो असंतुलन पैदा हुमा । परिणामतः अहिंसा ने कायरता का रूप ले लिया। सुख-शान्ति-वैभव प्राप्ति की इच्छा प्रबल हुई। प्रात्म-रक्षा के लिए भी युद्ध हिंसा-परक हो गया। क्षात्रतेज नष्ट हुमा, ब्रह्मतेज क्षीण हुमा और कृषि में हिंसा नजर आने लगी। केवल 'व्यापार में या सूदखोरी में हमें अहिंसा नज़र आई।
आज सारे का सारा जैन समाज अधिकांश व्यापारी वर्ग से सम्बन्ध रखता है। क्षात्र तेज और ब्रह्मतेज में हम 'शून्य' के बराबर हैं। हमारी क्रय-शक्ति व्यापार के कारण जरूर बढ़ी है परन्तु किन किन साधनों से ? ज्ञान, शक्ति और माचार की किसी भी भूमिका पर हमारा नाम निशान नजर नही माता।
परिणाम यह हुआ है कि थपेड़े खाते खाते 50 करोड़ की संख्या में से अब हम केवल पचास लास ही बचे होंगे।
इसी संदर्भ में एक संस्मरण पेश कर रहा हूं। जरा विचार से पढ़ियेगा
'बात सन् 1954 की है। पण्डित जवाहर लाल नेहरू उस समय