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जिस समय महापद्मनंद ने मगध सिहासन को हथिया लिया था, उस समय चंद्रगुप्त बालक ही थे। उनकी माता मौर्याख्य देश के “मोरिय" क्षत्रियो की कन्या थी । वह अपने इस लाल को लेकर उसकी ननिहाल पहुंची। मोरिय क्षत्रियों ने सहर्ष उनका स्वागत किया और उनकी रक्षा का वचन लिया। एक क्षत्रिय की इससे अधिक खुशी क्या हो सकती है कि वह शरणागत को अभय प्रदान करे, तिस पर चद्रगुप्त तो उन्ही के खास अश थे।
महापद्मनद ने देश पर आक्रमण कर दिया और अनेकयोद्धाओ को मौत के घाट उतार दिया। इस संकट काल में चद्रगुप्त को अपनी माता से विदा होना पड़ा। वह पश्चिमी भारत की ओर तक्षशिला को चला गया। उस समय ३२६ ई० पू० सिकदर महान् का भारत पर आक्रमण हो चुका था और सीमाप्रात और पजाब के कुछ हिस्से पर उसका अधिकार भी हो चुका था। चद्रगुप्त ने यूनानी शिविर में रहकर उनकी राजनीति और सैन्य व्यवस्था का अवलोकन किया। सिकंदर से अनबन होने पर चद्रगुप्त को वहा से खिसकना पड़ा। उसकी भेट एक ऐसे विलक्षण और उग्र स्वभावी व्यक्ति से हुई जो महापद्मनद द्वारा किये गये अपमान का बदला लेने के लिये आतुर हो रहा था। यह चाणक्य नाम का ब्राह्मण था। वे परस्पर एक दूसरे के सहायक बन
गये।
जैन ग्रथों में चाणक्य को एक "चणक" नामी जैनी ब्राह्मण का पुत्र लिखा है जो अपने जीवन के प्रत काल मे जैन मुनि हो गया था। इस सम्बन्ध मे अधिक खोज की आवश्यकता है ताकि कुछ ऐसे तथ्य जिनपर अभी पर्दा पड़ा हुआ है, प्रकाश में लाये जाये।
चंद्रगुप्त के मन में मगधराज 'महापद्मनंद' को राजच्युत करने व बदला लेने की प्रबल इच्छा थी और उधर चाणक्य भी चद्रगुप्त के