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नंद वश के राजाओं की संन्यशक्ति व वैभव अतुलनीय थे। इन राजाओं में अधिकांश जैन धर्मानुयायी थे और उनमे सम्राट नद वर्द्धन मुख्य थे। उन्होंने लगभग समस्त उत्तरी भारत को जीत लिया था और कलिंग में अपनी विजय का नाद बजाया था। उनके पश्चात नदवश का ह्रास आरम्भ होता है।
'महानद' नाम के नंदवंशी नृप की जब मृत्यु हुई तो उसकी एक रानी शूद्रजाति से थी जिसका पुत्र बलवान् था परन्तु अन्य रानियो की संतानें अल्पायु थी। फलत: अपने पिता की आंख मिचते ही शूद्रजात नद पुत्र "महापद्म" राज्य का स्वामी बन बैठा । शेष राजकुमारों को अपनी जान बचाने के लिये मगध को छोड़ना पड़ा। वे मजबूर होकर अन्य सुरक्षित स्थानो को चले गये ।
इन्ही राजकुमारों में एक चंद्रगुप्त भी था। यह विवादास्पद प्रश्न है कि चंद्रगुप्त नदराजा का पुत्र था या नही । परन्तु इतना तो स्पष्ट ही है कि उसका नंदवश से घनिष्ठ सम्बन्ध था। हिन्दू पुराणों में चंद्रगुप्त का उल्लेख नंदेंदु" आदि विशेषणो द्वारा हुआ मिलता है। अत: 'चंद्रगुप्त' क्षत्रिय वंश का भूषण था और यही आगे चलकर मौर्य राज्य का संस्थापक हुआ।
कोई एक विद्वान् चंद्रगुप्त की मां को एक 'नाइन' बतलाने की गलती करते हैं। प्राचीन बौद्ध और जैन ग्रथो में उनका क्षत्रिय होना प्रमाणित है । 'मद्राराक्षस' नामक अर्वाचीन नाटक ग्रंथ में ही केवल उनका नाम "वृषल" नाम से हुआ है, किन्तु वृषल का अर्थ 'नीच के अतिरिक्त 'धर्मात्मा भी है जैसे:
वृष-सुकृतं लातीति वृषलः इसीलिये चंद्रगुप्त को शूद्राजात बतलाना ठीक नही है ।