Book Title: Jain Bharati
Author(s): Shadilal Jain
Publisher: Adishwar Jain

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Page 61
________________ ५८ स्वप्नों को साकार करने के लिये कटिबद्ध हो गया था । प्रजा भी नद राजा से सन्तुष्ट थी और उसने हृदय से चद्रगुप्त का साथ दिया । परिस्थिति अनुकूल थी । चद्रगुप्त ने मगधराज पर धावा बोल दिया और चाणक्य की कुटिल राजनीति प्रत मे सफल हुई । चाणक्य को उसकी सफल 'कुटिल नीति' के आधार पर "कौटिल्य" भी कहते है । नद राजा 'महापद्म' की पराजय हुई और चद्रगुप्त को मगध का राज - सिंहासन मिल गया । 1 सिहासनारूढ होने पर अपने परोपकारी चाणक्य को मंत्रिपद दिया परन्तु चाणक्य ने बड़ी सावधानी से यहाँ भी अपनी राजनीति बरती । उसने 'प्रधान मंत्री' का पद नदराजा के भूतपूर्व जैन धर्मानुयायी मत्री 'राक्षस' के सुपुर्द करने की सलाह दी । अतः राक्षस चंद्रगुप्त का प्रधानमंत्री बना । इस प्रकार चाणक्य ने अपनी बुद्धिमत्ता से 'शत्रु' को भी चंद्रगुप्त का विश्वास पात्र राजभक्त बना दिया ! चद्रगुप्त ने एक नया मुख्य कार्य किया । उसने अपने वश का नाम पितृ वश (नद वश) के आधार पर नही रखा । एक तो नदवश बहुत बदनाम हो गया था, दूसरे उसकी प्राणरक्षा करने और जीवन को समुन्नत बनाने का श्रेय उसके ननिहाल के ' मोरिय' क्षत्रियो को प्राप्त था जो चद्रगुप्त के कारण नंदराजा द्वारा तबाह कर दिये गये थे । मातृवश 'मोरिय अथवा मौर्य' के प्रति वह अत्यन्त कृतज्ञ था । उस समय मौर्य क्षत्रिय थे, तो मौर्य ब्राह्मण भी मिलते थे । इस प्रकार 'मौर्य' नाम उस देश की अपेक्षा प्रसिद्ध था, वह केवल जाति सम्बोधक नाम ही न रह गया था । इन सब बातो को ध्यान में रखते हुए चंद्रगुप्त ने अपने वश का नाम "मौर्य" रखने मे गर्व अनुभव किया । यही "मौर्य" भारतवर्ष के लिये विशेष गौरव - वाचक शब्द बन गया । चाणक्य की नीति का " सुदर्शनचक्र" इस सफलता से चला कि

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