Book Title: Jain Bharati
Author(s): Shadilal Jain
Publisher: Adishwar Jain

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Page 47
________________ ४४ तीन गुणवत १. दिग्वत :-इस व्रत का धारण करने वाला समस्त दिशाओं में गमनागमन की मर्यादा करता है और उससे बाहर सब प्रकार की क्रियाओं का त्याग करता है। ____२. उपभोग परिभोग परिमाण :-एक बार भोगने योग्य वस्तु को 'उपभोग' कहते हैं, जैसे आहार आदि । बारम्बार भोगने योग्य वस्तु को 'परिभोग' कहते हैं-जैसे वस्त्र प्रादि । उपभोग परिमोग वस्तुओं की मर्यादा बाँध लेने से पाप पूर्ण व्यापारो का त्याग हो जाता है। ___३. अनर्थदण्ड त्याग :-बिना प्रयोजन हिंसा करना अनर्थदण्ड कहलाता है। यह व्रत कामोत्तेजक कुचेष्टा और वार्तालाप, असभ्य वचन तथा हिसाजनक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करता है। चार शिक्षाक्त १. सामायिक व्रत-सब पदार्थों में तटस्थभाव अथवा 'समभाव' स्थापित करना इस व्रत का उद्देश्य है। पापमय व्यापारों का त्याग करके निश्चित समय के लिये प्रात्मचिंतन करने का दैनिक अभ्यास करना ही इस व्रत में अभीष्ट है। 2. देशावकाशिक व्रत-एक दिन या न्यूनाधिक समय के लिये दिशाओ का परिमाण करना और उस परिमाण के बाहर समस्त पाप कार्यो का त्याग करना देशावकाशिक व्रत कहलाता है। ३. पौषधव्रत-जिससे आत्मिक गुणों या धर्म भावना का पोषण होता है, वह पौषधव्रत कहलाता है । एक रात-दिन उपवास करना,

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