Book Title: Jain Aayurved Ka Itihas Author(s): Rajendraprakash Bhatnagar Publisher: Surya Prakashan Samsthan View full book textPage 7
________________ भूमिका आयुर्वेद जीवन का विज्ञान है । भारतीय समाज और साहित्य यह इस तरह अनुस्यूत हो चुका है कि इसको पृथक् करना मुश्किल है । जीवन को प्रभावित करने वाली दो ही बातें हैं— प्रथम- शिक्षा और दूसरी- चिकित्सा । सभी मतों और धर्मों के प्रवर्तन तथा विस्तार के साथ इन दो के महत्वपूर्ण योगदान को परिलक्षित किया जा सकता है । वैष्णव मत में विष्णु के अवतारों में एक धन्वन्तरि बताये जाते हैं, जो आयुर्वेद के प्रवर्तक हैं । शैवमत में भी शिव के अठारह अवतारों में एक नकुलीश या लकुलीश नामक अवतार तो वस्तुतः चिकित्सक का ही रूप है । लकुलीश की पाई जाने वाली मूर्तियों के एक हाथ में हरीतकी और दूसरे हाथ में नाकुलीबूटी को अंकित किया गया है । हरीतकी रसायन और रोगनाशन चिकित्सा का प्रतीक है तथा नाकुली विषचिकित्सा का । बुद्ध के एक रूप अवलोकितेश्वर को 'भैषज्यगुरु' माना जाता है । इसी प्रकार जैनमत प्रादुर्भाव को स्वीकार किया गया है और चिकित्सा ही दो ऐसे माध्यम । तीर्थङ्करों की वाणी में ही चिकित्साशास्त्र के जनमानस को प्रभावित करने के लिए शिक्षा जो सर्वोपरि उपयोगी हैं । में गया है, ये 'द्वादशांग' जनमत में तीर्थंकरों की वाणी को बारह भागों में बांटा आगम कहलाते हैं । इनमें से बारहवां अंग 'दृष्टिवाद' है । 'दृष्टिवाद' के भी पांच भेद (भाग) हैं । प्रथम भाग 'पूर्व' संज्ञक है । पूर्व से अभिप्राय है, अंतिम चोबीसवें तीर्थंकर महावीर से पूर्व - पहले का ज्ञान जो आदि तीर्थंकर ऋषभदेव आदि पूर्ववर्ती तीर्थंकरों के उपदेशरूप वाणी के रूप में प्रकट हुआ था । 'पूर्व' के भी चौदह प्रकार हैं । इनमें से बारहवें 'पूर्व' का नाम 'प्राणावाय' है । प्राणों का यापन करने के लिए यम, नियम, आहार-विहार और औषधियों के रूप में स्वास्थ्य के उपायों का विवेचन करने वाला होने से प्राणावाय में संपूर्ण चिकित्साशास्त्र और योगशास्त्र का समावेश होता है । यह ही जैन - आयुर्वेद का मूल है । इसका ज्ञान पारंपरिक रूप से ऋषभदेव से गणधर और प्रतिगणधरों ने, उनसे श्रुतकेवलियों ने और उनसे बाद में होने वाले ग्रहण किया । दैवदुर्विपाक से 'प्राणावाय' का साहित्य नष्ट हो चुका है । का एकमात्र ग्रंथ उग्रादित्याचार्यकृत 'कल्याणकारक' मिलता है । इसमें प्राणावायपरंपरा का दिग्दर्शन किया गया है । यह ग्रंथ दक्षिण भारत में 8वीं शती के अंत में रचा गया था । उत्तर भारत में लिखा हुआ प्राचीनकाल का कोई जैन-चिकित्सा - ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता । अहिंसा आदि तत्वों का पालन करते हुए मद्य, मांस और मधु को छोड़कर समस्त रोगों ओर अवस्थाओं की विस्तृत चिकित्सा बताना ही 'प्राणावाय' का आधार था । इस दृष्टि से यह एक सफल चिकित्माशास्त्र भी रहा। आयुर्वेद की भांति प्राणावाय के भी कायचिकित्सा आदि आठ अंग बताये गए हैं । मुनियों ने उस परंपरा परन्तु कालान्तर में दृष्टिवाद के नष्ट हो जाने पर प्राणावाय की परम्परा भी टूट गयी । जैन भट्टारक, यति-मुनि और अन्य विद्वानों ने लोक- प्रचलित आयुर्वेद को ग्रहण कर उस पर अपनी कृतियां प्रस्तुत कीं फिर भी उनका दृष्टिकोण जैन सिद्धांता ।Page Navigation
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