________________ 28] श्री जैनव्रत-कथासग्रह ******************************** प्रकार ये धर्मके दश लक्षण बताये हैं। ये वास्तवमें आत्माके ही निजभाव हैं जो क्रोधादि कषायोंसे ढक रहे हैं। उत्तम क्षमा, क्रोधके उपशम या क्षय होनेसे प्रगट होती है। इसी प्रकार उत्तम मार्दव, मानके उपशम, क्षयोपशम, व क्षयसे होता है। उत्तम आर्जव, मायाके नाश होनेसे होता है। सत्य, मिथ्यात्व (मोह) के नाशसे होता हैं। शौच, लोभके नाशसे होता है। संयम, विषयानुराग कम या नाश होनेसे होता है। तप, इच्छाओंको रोकने (मन वश करने) से होता है। त्याग, ममत्व (राग) भाव कम वा नाश करनेसे होता है। आकिंचन्य, निस्पृहतासे उत्पन्न होता है और ब्रह्मचर्य काम विकार तथा उनके कारणोंको छोडनेसे उत्पन्न होता है। इस प्रकार ये दशों धर्म अपने प्रति घातक दोषोंके क्षय होनेसे प्रगट हो जाते हैं। (1) क्षमावान् प्राणी कदापि किसी जीवसे वैर विरोध नहीं करता हैं और न किसीको बूरा भला कहता हैं। किन्तु दूसरोंके द्वारा अपने उपर लगाये हुये दोषोंको सुनकर अथवा आये हुवे उपद्रवोंपर भी विचलित चित्त नहीं होता है, और उन दुःख देनेवाले जीवों पर उल्टा करूणाभाव करके क्षमा देता है, तथा अपने द्वारा किये हुये अपराधोंको क्षमा मांग लेता है। इस प्रकार यह क्षमावान पुरुष सदा निबर हुआ, अपना जीवन सुख शांतिमय बनाता है। (2) इसी प्रकार मार्दव धर्मधारी नरके क्षमा तो होती है किन्तु जाति, कुल, ऐश्वर्य, विद्या, तप और रूपादि समस्त प्रकारके मदोंके नाश होनेसे विनयभाव प्रकट होता है, अर्थात् वह प्राणी अपनेसे बडोंमें भक्ति व विनयभाव रखता है और छोटेमें करूणा व नम्रता रखता है, सबसे यथायोग्य मिष्टवचन