________________ श्री दशलक्षण व्रत कथा - [17 ******************************** पर पड़ी और वे विनयपूर्वक उनको नमस्कार करके वहां बैठ गई। और धर्मोपदेश सुनने लगी। पश्चात् मुनि तथा श्रावकोंका द्विविध प्रकार उपदेश सुनकर वे चारों कन्याएं हाथ जोडकर पूछने लगी - हे नाथ! यह तो हमने सुना, अब दया करके हमको ऐसा मार्ग बताइये कि जिससे इस पराधीन स्त्री पर्याय तथा जन्म मरणादिक दुःखोंसे छुटकारा मिले। तब श्री गुरु बोले-बालिकाओ! सुनो - यह जीव अनादिकालसे मोहभावको प्राप्त हुआ विपरीत आचरण करके ज्ञानावरणादि अष्टकर्मोको बांधता है और फिर पराधीन हुया संसारमें नाना प्रकारके दुःख भोगता है। सुख यथार्थमें कहीं बाहरसे नहीं आता है न कोई भिन्न पदार्थ ही हैं, किंतु वह (सुख) अपने निकट ही आत्मामें, अपने ही आत्माका स्वभाव हैं, सो जब तीव्र उदय होता हैं, उस समय यह जीव अपने उत्तमक्षमादि गुणोंको (जो यथार्थमें सुख-शांति स्वरूप ही है) भूलकर इनसे विपरीत क्रोधादि भावोंको प्राप्त होता है और इस प्रकार स्वपरकी हिंसा करता है। सो कदाचित यह अपने स्वरूपका विचार करके अपने चित्तको उत्तमक्षमादि गुणोंसे रंजित करे, तो निःसंदेह इस भव और परभवमें सुख भोगकर परमपद (मोक्ष) को प्राप्त कर सकता है। स्त्री पर्यायसे छूटना तो कठिन ही क्या हैं? इसलिये पुत्रियों! तुम मन, वचन, कायसे इस उत्तम दशलक्षण रूप धर्मको धारण करके यथाशक्ति व्रत पालों, तो निःसंदेह मनवांछित (उत्तम) फल पाओगी। भगवाननें उत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्यशौचसंयमतपस्त्यागाकिंचन्य ब्रह्मचर्याणि धर्मः अर्थात् उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य, इस