________________ श्री मेघमाला व्रत कथा [91 ******************************** बालकोंको अनुचित और कठोर शब्दोंमें केवल सम्बोधन ही नहीं करने लगते हैं। किन्तु उन्हें बिना मूल्य या मूल्यमें बेच तक देते हैं। प्राणोंसे प्यारी संतान कि जिसके लिए संसारके अनेकानेक मनष्य लालायित रहते हैं और अनेक यंत्र मंत्रादि कराया करते हैं। हाय, उस दरिद्रावस्थामें वह भी भाररूप हो पडती है। वत्सराज सेठ इसी चिंतामें चिंतित रहता था। जब ये बालक क्षुधातुर होकर मातासे भोजन मांगते तो माता कठोरतासे कह देती-जाओ मरो, लंघन करो, चाहें भीख मांगो तुम्हारे लिये मैं कहांसे भोजन दे दूं? यहां क्या रखा है जो दे दूं? सो वे नन्हें नन्हें बालक झिडकी खाकर जब पिताजीके पास जाते, तब वहांसे भी निराश ही पल्ले पडती। हाय, उस समयका करुणा क्रन्दन किसके हृदयको विदीर्ण नहीं कर देता है। एक दिन भाग्योदयसे एक चारण ऋद्धिधारी मुनि वहां आये। उन्हें देखकर वत्सराज सेठने भक्तिसहित पडगाहा और घरमें जो रूखासूखा भोजन शुद्धतासे तैयार किया गया था, सो भक्ति सहित मुनिराजको दिया। मुनिराज उस भक्तिपूर्वक दिये हुए स्वाद रहित भोजनको लेकर वनकी ओर सिधार गये। तत्पश्चात् सेठ भी भोजन करके जहां श्री मुनिराज पधारे, वहां खोजते खोजते पहूँचा और भक्तिपूर्वक वंदना करके बैठा। श्री गुरुने इस सम्यक्तादि धर्मका उपदेश दिया। पश्चात् सेठने पूछा-हे दयानिधि! मेरे दरिद्रता होनेका कारण क्या है? और अब यह कैसे दूर हो सकती हैं? तब श्री गुरु बोले-ए वत्स, सुनो! कौशल देशकी अयोध्या नगरीमें देवदत्त नामक सेठकी देवदत्ता नामकी सेठानी रहती थी। वह धन, कण और रूप लावण्य कर संयुक्त तो थी