________________ 108] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** (224 श्री द्वादशी व्रत कथा) नमों शारदा पद कमल, स्याद्वाद भय सार। जो प्रसाद द्वादशी कथा, कहूँ भव्य हितकार॥ मालवा प्रदेशमें पद्मावतीपुर नगर था। जहां नरब्रह्मा राजा अपनी विजयावती रानी सहित राज्य करता था। इस राजाको एक कुबडी कन्या उत्पन्न हुई, जिसका नाम शीलावती पडा। एक दिन शिलावतीको रोती हुई देखकर राजा रानीको अत्यन्त दु:ख हुआ व अनेक प्रकारकी चिन्ता करने लगे। फिर किसी दिन भाग्योदयसे उसी नगरमें श्रमणोत्तम नामक मुनिराज विहार करते हुए आये। यह सुनकर राजा अति प्रसन्न हो नगरके लोगों सहित वन्दनाको गया। और स्तुति वंदनाके अनन्तर धर्मोपदेश श्रवण किया। पश्चात् अवसर पाकर राजाने पूछा-प्रभु! मेरी पुत्री शीलावतींको कौन पापके उदयसे यह दुःख प्राप्त हुआ है? तब श्री गुरुने अवधिज्ञानसे विचार कर कहा-ए राजा! सुनो, अवन्ती देशमें आडलपुर नगर है, वहां राजपुरोहित देहुशर्मा और उसकी कालमुरी नामकी कन्या थी। एक दिन यह कन्या सखियों सहित वनक्रीडा निमित्त उपवनमें गई और वहां आमके वृक्षके नीचे परम दिगम्बर ऋषिराजको कायोत्सर्ग ध्यान करते हुए देखा। सो अपने रूपादिक मदसे मदोन्मत्त उस कन्याने मुनिको बहुत निन्दा की। कुत्सित शब्द भी कहने लगी कि यह नंगा, ढोंगी और अत्यन्त कामासक्त व्यभिचारी है। यह स्त्रियोंको अपना गुप्त