Book Title: Jain 40 Vratha katha Sangraha
Author(s): Dipchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

View full book text
Previous | Next

Page 131
________________ 122] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** आगमन सुनकर और भी बहुत लोग वन्दनार्थ वनमें आये थे और सब स्तुति वन्दना करके यथा स्थान बैठे। श्री मुनिराज उनको धर्मवृद्धि कहकर अहिंसादि धर्मका उपदेश करने लगे। ____ जब उपदेश हो चूका तब साहूकारकी स्त्री गुणसुन्दरी बोली स्वामी! मुझे कोई व्रत दीजिये। तब मुनिराजने उसे पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतका उपदेश दिया और सम्यक्त्वका स्वरूप समझाया, और पीछे कहा-बेटी! तू आदित्यवारका व्रत कर, सुन, इस व्रतकी विधि इस प्रकार है कि आषाढ मासमें प्रथम पक्षमें प्रथम रविवारसे लेकर नव रविवारों तक यह व्रत करना चाहिये। प्रत्येक रविवारके दिन उपवास करना या बिना नमक (मीठा) के अलोना भोजन एकबार (एकासना) करना पार्श्वनाथ भगवानको पूजा अभिषेक करना। घरके सब आरम्भका त्यागकर विषय और कषाय भावोंको दूर करना, ब्रह्मचर्यसे रहना, रात्रि जागरण भजनादि करना और 'ॐ ह्रीं अर्ह पार्श्वनाथाय नमः' इस मंत्रकी 108 बार जाप करना। इस प्रकार नव वर्ष तक यह व्रत करके पश्चात् उद्यापन करना। प्रथम वर्ष नव उपवास करना, दूसरे वर्ष नमक बिना भात और पानी पीना, तीसरे वर्ष नमक बिना दाल भात खाना, चौथे वर्ष बिना नमककी खिचडी खाना, पांचवें वर्ष बिना नमककी रोटी खाना, छड़े वर्ष बिना नमक दही भात खाना, सातवें तथा आठवे वर्ष नमक विना मूंगकी दाल और रोटी खाना और नववें वर्ष एकबारका परोसा हुआ (एकटाना) नमक बिना भोजन करना, फिर दूसरीवार नहीं लेना और थालीमें जूठन भी नहीं छोडना।

Loading...

Page Navigation
1 ... 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162