________________ श्री रविवार ( आदित्यवार) व्रत कथा [121 ******************************** इस प्रकार राजा हरिषेणने व्रतकी विधि और फल सुनकर मुनिराजको नमस्कार किया और घर जाकर कितनेक वर्षातक यथा विधि यह व्रत पालन करके पश्चात् संसार भोगोंसे विरक्त होकर जिन 'दीक्षा ले ली, सो तपके प्रभाव व शुक्लध्यानके बलसे चार घातिया कर्मोका नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया और अनेक देशोंमें विहार कर भव्यजीवोंको संसारमें पार होनेवाले सच्चे जिन मार्गमें लगाया। पश्चात् आयुके अंतमें शेष कर्मोको नाश कर सिद्ध पद पाया। इस प्रकार यदि अन्य भव्यजीव भी इस प्रकार पालन करेंगे तो वे उत्तमोत्तम सुखोंको अपने२ भावोंके अनुसार पाकर उत्तम गतियोंको प्राप्त होवेंगे। तात्पर्य व्रतका फल तब ही होता है जबकि मिथ्यात्व तथा क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कषाय तथा मोहको मंद किया जाय। इस लिए इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए। नन्दीधर व्रत फल लियो, श्री हरिषेण नरेश। कर्म मेश शिवपुर गयो, वन्दूं चरण हमेश॥ (25 श्री रविवार (आदित्यवार) व्रत कथा) काशी देशकी बनारस नगरीका राजा महीपाल अत्यंत प्रजावत्सल और न्यायी था। उसी नगरमें मतिसागर नामका एक सेठ और गुणसुन्दरी नामकी उसकी स्त्री थी। इस सेठके पूर्व पुण्योदयसे उत्तमोत्तम गुणवान तथा रूपवान सात पुत्र उत्पन्न हुए। उनें छ: का तो विवाह हो गया था, केवल लघुपुत्र गुणधर कुंवारे थे सो गुणधर किसी दिन वनमें क्रीडा करते विचर रहे थे तो उनका गुणसागर मुनिके दर्शन हो गये। वहां मुनिराजका