Book Title: Jain 40 Vratha katha Sangraha
Author(s): Dipchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 150
________________ श्री ज्येष्ठ जिनवर व्रत कथा [141 ******************************** जो कि हमेसा ही अपने हृदयमें जिनेन्द्र भगवानका मंदिर बनाये थीं। इस प्रकार बहुतसा समय व्यतीत हो गया। एक दिन वहां मुनिराजका शुभागमन हुआ, तो नगरके सभी लोग आनंदित हुवे और राजा अपने परिजन सहित मुनिकी वंदनार्थ गया। मुनिवरने दो प्रकारके धर्म (मुनि और श्रावक) का उपदेश दिया जिससे सुनकर राजाको महान् हर्ष हुआ। उस समय सोमिल्या (पूर्वभवकी सोमश्रीकी सास) भी वहां थी जो कि अत्यंत दुःखी और दरिद्रावस्थामें थी। राजाने पूछा-हे मुनिवर! इस सोमिल्याने ऐसा कौनसा पाप किया है जो इस प्रकार दुःखी है? मुनिराजने अवधिज्ञानसे बताया कि यह सोमश्रीकी सास है, ज्येष्ठ जिनवर व्रतकी निन्दा करनेसे उसके फलको यह भोग रही है। इसके मस्तिष्कमें जो कुम्भ नामक रोग है वह पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मोका फल है, सोमश्री मरकर हे राजन! कुम्भश्री नामसे तेरी पुत्री हुयी जो कि सर्वगुण संपन्न है। कुम्भश्रीने हाथ जोड़कर कहा हे मुनिनाथ! मुझपर कृपा करो। मेरी सास अत्यंत दुःखित और विकृत शरीर है। आप ऐसा उपदेश दे जिससे इनके सर्व दु:ख दूर हो जाये। ऋषिराजने कहा-तू इसका स्पर्श कर और गंधोदक छिड़क तथा यह जिनेन्द्र भगवानके चरणकमलोंका सेवन करे जिससे इसकी सब दरिद्रता और दुःख शीघ्र ही मिट जायेंगे। तब कुम्भश्रीने उसपर उपकार किया तो उस दुर्गन्धा सोमिल्याकी विकृति (विवर्ण एवं कुरुपता) नष्ट हो गई, फिर सोमिल्या आर्जिका हुई व तप करके प्रथम स्वर्गमें देव हुई।

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